बिल्कुल आमने सामने फ़्लैट थे। हमारे फ़्लैट का नंबर तेरह था, उसके फ़्लैट का चौदह। कभी कोई सामने का दरवाज़ा खटखटाता तो मुझे यही मालूम होता कि हमारे दरवाज़े पर दस्तक हो रही है। इसी ग़लतफ़हमी में जब मैंने एक बार दरवाज़ा खोला तो उससे मेरी पहली मुलाक़ात हुई। यूं तो इससे पहले कई दफ़ा मैं उसे सीढ़ियों में, बाज़ार में और बालकोनी में देख चुकी थी मगर कभी बात करने का इत्तफ़ाक़ न हुआ था। जब मैंने दरवाज़ा खोला तो वो मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराई और कहने लगी, “तुमने समझा कोई तुम्हारे घर आया है।” मैं भी जवाब में मुस्कुरा दी। चंद लम्हात तक वो अपने दरवाज़े की दहलीज़ में और मैं अपने दरवाज़े की दहलीज़ में खड़ी रही। इसके बाद वो मुझसे और मैं उससे अच्छी तरह वाक़िफ़ हो गई। उसका नाम मैरी या ख़ुदा मालूम क्या था। मगर उसके ख़ाविंद का नाम पी.एन.डी सिल्वा था, चुनांचे मैं उसे मिसेज़ डी सिल्वा ही कहती थी। मैं उसे मैरी ज़रूर कहती मगर वो उम्र में मुझसे कहीं बड़ी थी। मोटे मोटे नक़्श, छोटी गर्दन, अंदर धंसी हुई नाक पकौड़ा सी, सर छोटा जिस पर कटे हुए बाल हमेशा परेशान रहते थे। आँखें दवात के मुँह की तरह खुली रहती थीं। मालूम नहीं सोते में उनकी शक्ल कैसी होती होगी? उसका ख़ाविंद मामूली शक्ल-ओ-सूरत का आदमी था। किसी दफ़्तर में काम करता था। जब शाम को घर लौटता और मुझे बाहर बालकनी में देखता तो अपने भूरे रंग का हैट उतार कर मुझे सलाम ज़रूर करता था, बेहद शरीफ़ आदमी था। मिसेज़ डी सिल्वा भी बहुत मिलनसार और बा-अख़लाक़ औरत थी। दोनों मियां-बीवी पुरसुकून ज़िंदगी बसर करते थे। चार पाँच बरस का एक लड़का था, उसको देख कर कभी ऐसा मालूम होता था कि बाप छोटा हो गया है और कभी ऐसा मालूम होता था कि माँ सिकुड़ गई है। माँ-बाप दोनों के नक़्श कुछ इस तरह उस बच्चे में ख़लत-मलत हो गए थे कि आदमी फ़ैसला नहीं कर सकता था कि वो माँ पर है या बाप पर। पाँच बरस में उनके यहां सिर्फ़ यही एक बच्चा था। मिसेज़ डी सिल्वा ने एक रोज़ मुझ से कहा था, “हमारा माँ भी इस मुवाफ़िक़ बच्चा दिया करता था... पाँच बरस के पीछे एक। पहले हम हुआ, पाँच बरस के पीछे हमारा भाई हुआ, उसके पीछे हमारा एक और बहन।” पाँच बरस की क़ैद चूँकि पूरी हो चुकी थी। इसलिए मिसेज़ डी सिल्वा अब पेट से थी। उसका ख़ाविंद बहुत ख़ुश था। मुझे मिसेज़ डी सिल्वा ने बताया कि अपनी डायरी में उसने कई तारीखें लिख रखी हैं। पहले बच्चे की पैदाइश की तारीख़, होने वाले बच्चे की पैदाइश की तारीख़ का अंदाज़ा और वो साल जिसमें कि तीसरा बच्चा पैदा होगा। ये सारा हिसाब उसने अपनी डायरी में दर्ज कर रखा था। मिसेज़ डी सिल्वा कहती थी कि उसके ख़ाविंद को पाँच बरस की ये क़ैद अच्छी मालूम नहीं होती। उसकी समझ में नहीं आता कि एक बच्चा पैदा करने के बाद वो पाँच बरस के लिए क्यों छुट्टी पर चली जाती है। मिसेज़ डी सिल्वा ख़ुद हैरान थी मगर उसे फ़ख़्र समझती थी कि वो अपनी माँ के नक़श-ए-क़दम पर चल रही है। मैं भी कम मुतहय्यर न थी, सोचती थी या-इलाही ये पाँच बरसों का चक्कर क्या है, क्यों उन दोनों में से एक गिनती नहीं भूल जाता? क़ुदरत ने क्या उस औरत के अंदर ऐसी मशीन लगा दी है कि जब पाँच साल के पाँच चक्कर ख़त्म हो जाते हैं तो खट से बच्चा पैदा हो जाता है। ख़ुदा की बातें ख़ुदा ही जाने। हमारे पड़ोस में एक और औरत भी जो डेढ़ बरस से पेट से थी। डाक्टर कहते थे कि उसके रहम में कोई ख़राबी है। बच्चा मौजूद है, जो पैदा हो जाएगा मगर उसकी नश्व-ओ-नुमा थोड़े थोड़े वक़्फ़ों के बाद चूँकि रुक जाती है इसलिए अभी तक इतना बड़ा नहीं हुआ कि पैदा हो सके। अम्मी जान जब मुझसे ये बातें सुनती थीं तो कहा करती थीं, क़ियामत आने वाली है, ख़ुदा जाने दुनिया को क्या हो गया है। पहले कभी ऐसी बातें सुनने में नहीं आती थीं। औरतें चुप चाप नौ महीने के बाद बच्चे जन दिया करती थीं। किसी को कानों कान ख़बर भी नहीं होती थी। अब किसी के बच्चा पैदा होने वाला हो तो सारे शहर को ख़बर हो जाती है। मटका सा पेट लिए बाहर जा रही हैं। सड़कों पर घूम रही हैं। लोग देख रहे हैं मगर क्या मजाल कि उनको ज़रा सी भी हया आजाए... आजकल तो दीदों का पानी ही मर गया है। मैं ये सुनती थी तो दिल ही दिल में हंसती थी। अम्मी जान का पेट भी कई बार फूल कर मटका बन चुका था और यह मटका लिये वो घर का सारा काम काज करती थीं। हर रोज़ मार्कीट जाती थीं मगर जब दूसरों को देखती थीं या उनके मुतअ’ल्लिक़ बातें सुनती थीं तो अपनी आँख का शहतीर नहीं देखती थीं। दूसरों की आँख का तिनका उन्हें फ़ौरन नज़र आ जाता था। आदमी अगर इस मुसीबत में गिरफ़्तार हो जाये तो क्या उसे बाहर आना-जाना बिल्कुल बंद करदेना चाहिए। मटका सा पेट लिये बस घर में बैठे रहो। सोफे पर से उठो, चारपाई पर लेट जाओ। चारपाई से उठो तो किसी कुर्सी पर लेट जाओ। मगर आफ़त तो ये है कि मटका सा पेट लिये बैठने और लेटने में भी तो तकलीफ़ होती है। जी चाहता है कि आदमी चले-फिरे ताकि बोझ कुछ हल्का हो। ये क्या कि पेट में बड़ी सी फुटबाल डाले घर की चार दीवारी में क़ैद रहे। समझ में नहीं आता कि अम्मी जान हया क्यों तारी करना चाहती हैं। भई अगर कोई पेट से है तो क्या उसका क़सूर है? उसने कोई शर्मनाक बात की है जो वो शर्म महसूस करे। जब ख़ुदा की तरफ़ से ये मुसीबत औरतों पर आ’इद कर दी गई कि वो एक मुक़र्ररा मुद्दत तक बच्चे को पेट में रखें तो इसमें शर्माने और लजाने की बात ही क्या है और इसका ये मतलब भी नहीं कि सब काम छोड़कर आदमी बिल्कुल निकम्मा हो जाये, इसलिए कि उसे बच्चा पैदा करना है। बच्चा पैदा होता रहे, अब क्या इसके लिए बाहर आना जाना मौक़ूफ़ कर दिया जाये। लोग हंसते हैं तो हंसें, क्या उनके घर में उनकी माएं और बहनें कभी पेट से नहीं होंगी। भई, मुझे तो अम्मी जान की ये मंतिक़ बड़ी अ’जीब सी मालूम होती है। असल में उनकी आदत ये है कि ख़्वाह-मख़्वाह हर बात पर अपना लेक्चर शुरू कर देती है, ख़्वाह किसी को बुरा लगे या अच्छा। अपनी लड़की की बात हो तो कभी कुछ न कहेंगी। पिछली दफ़ा जब आरिफ़ मेरे पेट में था और मैं हर रोज़ अपोलोबंदर सैर को जाती थी तो क़सम ले लो जो उनके मुँह से मेरे ख़िलाफ़ कुछ निकला हो, पर अब चूँकि बात मिसेज़ डी सिल्वा की थी जो बेचारी सिर्फ़ इतवार की सुबह गिरजा में नमाज़ पढ़ने और शाम को सौदा सुल्फ़ लाने के लिए अपने ख़ाविंद के साथ बाहर निकलती थी, इसलिए अम्मी जान को “तो ये है बीवी, तो ये है बीवी” कहने का मौक़ा मिल जाता है। पहले बच्चे पर पेट ज़्यादा नहीं फूलता, लेकिन दूसरे बच्चे को चूँकि फैलने के लिए ज़्यादा जगह मिल जाती है, इसलिए पेट बहुत बड़ा हो जाता है। मिसेज़ डी सिल्वा लंबा सा चुग़ा पहने जब घर में चलती फिरती थी तो उसका पेट बहुत बदनुमा मालूम होता था। क़द उसका छोटा था। पिंडलियां जो बहुत पतली थीं और चुग्गे के नीचे आहिस्ता आहिस्ता हरकत करती थीं, बहुत ही भद्दी तस्वीर पेश करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि घड़ौंची पर मटका रखा है। सारा दिन इस लंबे चुग्गे में वो कार्टून बनी रहती थी। शुरू शुरू में बेचारी की बहुत बुरी हालत होती थी। हर वक़्त क़ै और मतली। क़ुलफ़ी वाले की आवाज़ सुनती तो तड़प जाती, उसको बुलाती लेकिन जब खाने लगती तो फ़ौरन ही जी मालिश करने लगता। सारा दिन लेमू चूसती रहती। एक दिन दोपहर के वक़्त मैं उसके यहां गई। क्या देखती हूँ कि बिस्तर पर लेटी है, लेकिन टांगें ऊपर उठा रखी हैं। मैंने मुस्कुरा कर कहा, “मिसेज़ डी सिल्वा एक्सरसाइज़ कर रही हो क्या?” झुँझला कर बोली, “हम बहुत तंग आगया है। यूं टांगें ऊपर करता है तो हमारा तबीयत कुछ ठीक हो जाता है।” ठंडी ठंडी दीवार के साथ पैर लगाने से उसे कुछ तस्कीन होती थी। बा’ज़ औक़ात उसकी तबीयत घबराती थी तो ज़ोर ज़ोर से मेज़ को या बिस्तर को जहां भी वो बैठी हो मक्खियां मारना शुरू करदेती थी और जब इस तरह घबराहट कम नहीं होती थी तो तंग आकर रोना शुरू करदेती थी। उसकी ये हालत देख कर मुझे बहुत हंसी आती थी। चुनांचे वो तमाम तकलीफें जो मुझ पर बीत चुकी थीं, भूल कर उससे कहा करती थी, “मिसेज़ डी सिल्वा, जान बूझ कर तुमने ये मुसीबत क्यों मोल ली?” इस पर वो बिगड़ कर कहती, “हमने कब लिया। पाँच बरस के पीछे साला ये होने को ही मांगता था।” मैं कहती, “तो मिसेज़ डी सिल्वा, पांचवें साल तुम बैंगलोर क्यों न चली गईं?” वो जवाब देती, “हम चला जाता। सच, हम जाने को एक दम तैयार था पर ये वार स्टार्ट हो गया। हम वहां रहता हमारा साहब यहां रहता... ख़र्च बहुत होता। सो ये सोच कर हम न गया और साला ये आफ़त सर पर आन पड़ा।” शुरू शुरू में मिसेज़ डी सिल्वा को ये आफ़त मालूम होती थी पर अब वो ख़ुश थी कि दूसरा बच्चा पैदा होने वाला है। क़ै और मतली ख़त्म हो गई थी। टांगें ऊपर कर के लेटने की अब ज़रूरत नहीं थी क्योंकि उसकी तबीयत ठीक रहती थी। ये सिलसिला सिर्फ़ पहले दो महीने तक रहा था। अब उसे कोई तकलीफ़ नहीं थी। एक सिर्फ़ कभी कभी पेट में ऐंठन सी पैदा हो जाती थी या बच्चा जब पेट में फिरता था तो उसे थोड़े अ’र्से के लिए बेचैनी सी महसूस होती थी। मिसेज़ डी सिल्वा बिल्कुल तैयार थी। छोटे छोटे फ़राक सी कर उसने एक छोटे से मुन्ने बैग में रख छोड़े थे। नहालचे पोतड़े भी तैयार थे। उसका ख़ाविंद लोहे का एक झूला भी ले आया था। उसके लिए मिसेज़ डी सिल्वा ने पुराने तकियों के रुई से एक गद्दा भी बना लिया था। ग़रज़ कि सब सामान तैयार था। अब मिसेज़ डी सिल्वा को सिर्फ़ किसी हस्पताल में जा कर बच्चा जन देना था और बस। मिस्टर डी सिल्वा ने दो महीने पहले हस्पताल में अपनी बीवी के लिए जगह बुक कर रखी थी। पाँच रुपये एडवांस दे दिए थे ताकि ऐन वक़्त पर गड़बड़ न हो और हस्पताल में जगह मिल जाये। मिस्टर डी सिल्वा बहुत दूर अंदेश था। पहले बच्चे की पैदाइश पर भी उसके इंतिज़ामात ऐसे ही मुकम्मल थे। मिसेज़ डी सिल्वा अपने ख़ाविंद से भी कहीं ज़्यादा दूर अंदेश थी जैसा कि मैं बता चुकी हूँ। उसने इन नौ महीनों के अंदर अंदर वो तमाम सामान तैयार कर लिया था जो बच्चे के पहले दो बरसों के लिए ज़रूरी होता है। नीचे बिछाने के लिए रबड़ के कपड़े फीडर, चुसनियां, झुनझुने और दूसरे जापानी खिलौने और इसी क़िस्म की और चीज़ें, सब बड़ी एहतियात से उसने एक अ’लाहिदा ट्रंक में बंद कर रखी थीं। हर दूसरे तीसरे दिन वो ये ट्रंक खोल कर बैठ जाती थी और उन चीज़ों को और ज़्यादा क़रीने से रखने की कोशिश करती थी। दरअसल वो दिन गिनती थी कि जल्दी बच्चा पैदा हो और वो उसे गोद में लेकर खेलाए, दूध पिलाए, लोरियां दे और झूले में लिटा कर सुलाये। पाँच बरस की ता’तील के बाद अब गोया उसका स्कूल खुलने वाला था, वो उतनी ही ख़ुश थी जितना कि तालिब-ए-इ’ल्म ऐसे मौक़ों पर हुआ करते हैं। हमारी बिल्डिंग के सामने एक पारसी डाक्टर का मतब था। उस डाक्टर के पास मिसेज़ डी सिल्वा हर रोज़ नौकर के हाथ अपना क़ारूरा भेजती थी, कहते हैं आख़िरी दिनों में क़ारूरा देख कर डाक्टर बता सकते हैं कि बच्चा कब पैदा होगा। मिसेज़ डी सिल्वा का ख़याल था कि दिन पूरे हो गए हैं। मगर ये डाक्टर कहता था कि नहीं अभी कुछ दिन बाक़ी हैं। एक रोज़ में ग़ुस्लख़ाने में नहा रही थी कि मैंने मिसेज़ डी सिल्वा की घबराई हुई आवाज़ सुनी, फिर दरवाज़ा खुला और मिसेज़ डी सिल्वा के कराहने की आवाज़ आई। मैंने खिड़की खोल कर देखा तो मिसेज़ डी सिल्वा अपने ख़ाविंद का सहारा लेकर उतरने वाली थी। रंग हल्दी की तरह ज़र्द था। मेरी तरफ़ देख कर उसने मुस्कराने की कोशिश की। मैंने बड़ी बूढ़ी औरतों का सा अंदाज़ इख़्तियार करके कहा, “साथ ख़ैर के जाओ और साथ ख़ैर के वापस आओ।” मिस्टर डी सिल्वा ने जब मेरी आवाज़ सुनी तो मुस्कुरा कर अपने भूरे रंग का हैट उतार मुझे सलाम किया। मैंने उससे कहा, “मिस्टर डी सिल्वा जूंही बेबी हो, मुझे ज़रूर ख़बर दीजिएगा।” वो मुस्कुराहट जो मिस्टर डी सिल्वा के मैले होंटों पर सलाम करते वक़्त पैदा हो चुकी थी, ये सुन कर और फैल गई। सारा दिन मेरा ध्यान मिसेज़ डी सिल्वा ही में पड़ा रहा। कई बार दरवाज़ा खोल कर देखा मगर हस्पताल से न तो नौकर ही वापस आया था न मिसेज़ डी सिल्वा का ख़ाविंद। शाम हो गई, ख़ुदा जाने ये लोग कहाँ ग़ायब हो गए थे। मुझे कुछ दिनों के लिए माहिम जाना था जहां मेरी बहन रहती थी। मुझे लेने के लिए आदमी भी आगया मगर हस्पताल से कोई ख़बर न आई। तीसरे रोज़ माहिम से जब में वापस आई तो अपने घर जाने के बजाये मैंने मिसेज़ डी सिल्वा के दरवाज़े पर दस्तक दी। थोड़ी देर के बाद दरवाज़ा खुला, क्या देखती हूँ कि मिसेज़ डी सिल्वा मेरे सामने खड़ी है... मटका सा पेट लिए, मैंने हैरतज़दा हो कर पूछा, “ये क्या?” वो मुझे अंदर ले गई और कहने लगी, “हमको दर्द हुआ तो हम समझा टाइम पूरा हुआ, वहां हस्पताल में गया और जब नर्स ने बेड पर लिटाया तो दर्द एक दम ग़ायब हो गया... हम बड़ा हैरान हुआ। नर्स लोग तो बड़ा हंसा, बोला, “इतना जल्दी तुम यहां क्यों आगया? अभी कुछ दिन घर पर और ठहरो। पीछे आओ... हमको बहुत शर्म आया।” उसका ये बयान सुनकर मैं बहुत हंसी, वो भी हंसी। देर तक हम दोनों हंसते रहे। इसके बाद उसने मुझे सारा वाक़िया तफ़सील से सुनाया कि किस तरह टैक्सी में बैठ कर वो हस्पताल गई। वहां एक कमरे में उसके तमाम कपड़े उतारे गए। नाम वग़ैरा दर्ज किया गया और एक बिस्तर पर लिटा कर उसे नर्सें दूसरे कमरे में चली गईं, जहां से कई दफ़ा उसे चीख़ों की आवाज़ सुनाई दी। उस बिस्तर पर वो चार पाँच घंटे तक पड़ी रही। इस दौरान में पहले एक नर्स आई, उसने उसे नहाने को कहा। नहाने से फ़ारिग़ हुई तो एक नर्स आई, उसने उसे इनेमा दिया। इनेमा देने के बाद तीसरी नर्स आई जो उसके इंजेक्शन लगा गई। उसके बाद डाक्टर आई, उसने पेट-वेट देखा तो झुँझला कर कहा, “तुम क्यों इतनी जल्दी यहां आ गया है। अभी घर जा कर आराम करो।” सब नर्सें हँसने लगीं। वो पानी पानी हो गई। कपड़े वपड़े पहन कर बाहर निकल आई जहां उसका ख़ाविंद खड़ा था। दोनों को चूँकि नाउम्मीदी का सामना करना पड़ा था और मिस्टर डी सिल्वा ने उस दिन की छुट्टी ले रखी थी इसलिए वो रीगल सिनेमा में मैटिनी शो देखने के लिए चले गए। मिसेज़ डी सिल्वा को सख़्त हैरत थी कि ये हुआ क्या? पिछली दफ़ा जब उसके बच्चा होने वाला था तो वो ऐ’न मौक़े पर हस्पताल पहुंची थी। अब उसका अंदाज़ा ग़लत क्यों निकला। दर्द ज़रूर हुआ था और ये बिल्कुल वैसा ही था जो उसे पहले बच्चे की पैदाइश से थोड़ी देर पहले हुआ था, फिर ये गड़बड़ क्यों हो गई? छट्ठे रोज़ शाम को साढ़े आठ बजे के क़रीब में बालकनी में बैठी थी कि मिसेज़ डी सिल्वा का नौकर आया। दस रुपये का नोट उसके हाथ में था, कहने लगा, “मेमसाहब ने छुट्टा मांगा है। वो हस्पताल जा रही है।” मैंने झट पट दस रुपय की रेज़गारी निकाली और भागी भागी वहां गई। मियां-बीवी दोनों तैयार थे। मिसेज़ डी सिल्वा का रंग हल्दी की तरह ज़र्द था। दर्द के मारे उसका बुरा हाल हो रहा था। मैंने और उसके ख़ाविंद ने सहारा देकर उसे नीचे उतारा और टैक्सी में बिठा दिया, “साथ ख़ैर के जाओ और साथ ख़ैर के वापस आओ।” कह मैं ऊपर गई और इंतिज़ार करने लगी। रात के बारह बजे तक में सीढ़ियों की तरफ़ कान लगाए बैठी रही। मगर हस्पताल से कोई वापस न आया। थक हार कर सो गई। सुबह उठी तो धोबी आगया, उससे पंद्रह धुलाइयों का हिसाब करने में कुछ ऐसी मशग़ूल हुई कि मिसेज़ डी सिल्वा का ध्यान ही न रहा। धोबी मैले कपड़ों की गठड़ी बांध कर बाहर निकला। मैं दरवाज़े के सामने बैठी थी। उसने बाहर निकल कर मिसेज़ डी सिल्वा के दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़ा खुला, क्या देखती हूँ कि मिसेज़ डी सिल्वा खड़ी है मटका सा पेट लिये। मैंने क़रीब क़रीब चीख़ कर पूछा, “मिसेज़ डी सिल्वा... फिर वापस आगईं।” जब उसके पास गई तो वो मुझे दूसरे कमरे में ले गई। शर्म से उसका चेहरा गहरे साँवले रंग के बावजूद सुर्ख़ होरहा था। रुक रुक कर उसने मुझ से कहा, “कुछ समझ में नहीं आता, दर्द बिल्कुल पहले के मुवाफ़िक़ होता है पर वहां नर्स लोग कहता है कि जाओ घर जाओ अभी देर है... ये क्या हो रहा है?” ये कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आगए। बेचारी की हालत क़ाबिल-ए-रहम थी, ऐसा मालूम होता था कि इस मर्तबा नर्सों ने उसे बहुत बुरी तरह झिड़का था। हैरत, शर्म और बौखलाहट ने मिल जुल कर उसको इस क़दर क़ाबिल-ए-रहम बना दिया था कि मुझे उसके साथ थोड़े अ’र्सा के लिए इंतहाई हमदर्दी हो गई। मैं देर तक उससे बातें करती रही। उसको समझाया कि इसमें शर्म की बात ही क्या है। जब बच्चा होने वाला हो तो ऐसी गलतफहमियां हो ही जाया करती हैं। नर्सों का काम है बच्चे जनाना। उनके पास आदमी इसीलिए जाता है कि आसानी से ये मरहला तै हो जाये। उन्हें मज़ाक़ उड़ाने का कोई हक़ हासिल नहीं, और जब फ़ीस वग़ैरा दी जाएगी और एडवांस दे दिया गया है तो फिर वो बेकार बातें क्यों बनाती हैं। मिसेज़ डी सिल्वा की परेशानी कम न हुई। बात ये थी कि उसका ख़ाविंद दफ़्तर से दो दफ़ा छुट्टी ले चुका था। बड़े साहब से लेकर चपरासी तक सबको मालूम था कि बच्चा होने वाला है। अब वो मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा था। इसी तरह मुहल्ले में सबको मालूम था कि मिसेज़ डी सिल्वा दो बार हस्पताल जा कर वापस आ चुकी है। कई औरतें उसके पास आ चुकी थीं और उन सबको फ़र्दन फ़र्दन उसे बताना पड़ा था कि बच्चा अभी तक पैदा क्यों नहीं हुआ। हर एक से उसने झूट बोला था। वो एक पक्की क्रिस्चियन औरत थी, झूट बोलने पर उसे सख़्त रुहानी तकलीफ़ होती थी। मगर क्या करती मजबूर थी। सातवें रोज़ जब मैं दोपहर का खाना खाने के बाद पलंग पर लेट कर क़रीब क़रीब सो चुकी थी, दफ़अ’तन मेरे कानों में बच्चे के रोने की आवाज़ आई, ये क्या?... दौड़ कर मैंने दरवाज़ा खोला, सामने फ़्लैट से मिसेज़ डी सिल्वा का नौकर घबराया हुआ बाहर निकल रहा था। उसका रंग फ़क़ था। कहने लगा, “मेमसाहब, बेबी... मेमसाहब बेबी...” मैंने अंदर जा कर देखा तो मिसेज़ डी सिल्वा नीम मदहोशी की हालत में पड़ी थी, बेचारी ने अब मज़ीद नदामत के ख़ौफ़ से वहीं बच्चा जन दिया था।