मुलाक़ाती

“आज सुबह आपसे कौन मिलने आया था?”
“मुझे क्या मालूम मैं तो अपने कमरे में सो रहा था।”

“आप तो बस हर वक़्त सोए ही रहते हैं, आपको किसी बात का इ’ल्म नहीं होता, हालाँकि आप सब कुछ जानते होते हैं।”
“ये अ’जीब मंतिक़ है। अब मुझे क्या मालूम कौन सुबह-सवेरे तशरीफ़ लाया था, कौन आया होगा। मेरे मिलने वाला या कोई और शख़्स जिसे सिफ़ारिश कराना होगी।”

“आपकी सिफ़ारिश कहाँ चलती है। बड़े आए हैं गवर्नर कहीं के।”
मैंने गवर्नरी का दा’वा कभी नहीं किया लेकिन इधर उधर मेरी थोड़ी सी वाक़फ़ियत है, इसलिए दोस्त यार कभी कभी किसी रिश्तेदार को यहां ले आते हैं कि मैं उसकी सिफ़ारिश कर दूं।”

“आप बात टालने की कोशिश न कीजिए। मेरी इस बात का जवाब दीजिए कि सुबह-सवेरे आपसे मिलने के लिए कौन आया था?”
“भई कह तो दिया है कि मुझे इ’ल्म नहीं। मैं अंदर अपने कमरे में सो रहा था। तुम्हें इतना तो याद होना चाहिए कि रात बड़े बच्चे को बुख़ार था और मैं देर तक जागता रहा इसके बाद उठ कर अपने कमरे में चला गया और नौ बजे तक सोया रहा।”

“मैं तो ऊपर कोठे पर थी... हो सकता है कि आप उससे उठ कर मिल लिए हों।”
“किस से... कुछ पता भी तो चले।”

“आपको पता चल जाएगा, जब मैं ये घर छोड़कर मैके चली जाऊंगी।”
“मेरी समझ में नहीं आता तुम्हें एका एकी क्या हो जाता है। तुम्हारे दिमाग़ में यक़ीनन कुछ फ़ुतूर है।”

“फ़ुतूर होगा आपके दिमाग़ में। मेरा दिमाग़ अच्छा भला है, देखिए मैं आपसे कह दूं कि आप ज़बान सँभाल कर बात क्या कीजिए मुझ से। आपकी ये बद-ज़ुबानियां अब बर्दाश्त नहीं हो सकतीं।”
“तुम ख़ुद परले दर्जे की बदज़ुबान हो। क्या औरत को अपने शौहर से इस तरह से बात करनी चाहिए?”

“जो शौहर इस क़ाबिल होगा, उससे उस क़िस्म के लहजे में गुफ़्तगू करना पड़ेगी।”
“बंद करो इस गुफ़्तगू को। मैं तुम्हारी इस रोज़ रोज़ की चख़ चख़ से तंग आ चुका हूँ। तुम तो मैके जाती रहोगी, मैं इससे पहले इस घर से निकल कर चला जाऊंगा।”

“कहाँ?”
“किसी जंगल में।”

“वहां जा कर क्या कीजिएगा।”
“सन्यासी बन जाऊंगा। तुमसे छुटकारा तो मिल जाएगा। ख़ुदा की क़सम चंद बरसों से तुमने मेरे नाक में दम कर रखा है। बात बात पर नोक झोंक करती हो, आख़िर ये सिलसिला क्या है? जाने कौन कमबख़्त सुबह मुझसे मिलने आया था, मेरे फरिश्तों को भी ख़बर नहीं। ख़ुद कहती हो कि तुम कोठे पर थीं, तुम्हें कैसे मालूम हो गया कोई मुझ से मिलने आया है। कभी तुक की बात भी किया करो।”

“आप तो हमेशा तुक की बात करते हैं। अभी कल ही की बात है, आप दफ़्तर से आए तो मैंने आप की सफ़ेद क़मीस पर लाल रंग का एक धब्बा देखा, मैंने पूछा ये कैसे लगा? आप सिटपिटा गए मगर फ़ौरन सँभल कर एक कहानी घड़ दी कि लाल पेंसिल से खुजा रहा था, शायद ये उसका निशान होगा। हालाँकि जब आपने क़मीस उतारी और मैंने उस धब्बे को ग़ौर से देखा तो वो लिपस्टिक का धब्बा था।”
“मेरा खयाल है कि तुम्हारा दिमाग़ चल गया है”

“जनाब उस लाल धब्बे से ख़ुशबू भी आरही थी। क्या आपके दफ़्तर की लाल पेंसिलों में ख़ुशबू होती है?”
“औरत का दूसरा नाम अपने ख़ाविंद की हर बात को शक की नज़रों से देखना है। कल सुबह तुमने ही मेरी उस क़मीस पर सेंट लगाया था।”

“लगाया होगा, मगर वो धब्बा यक़ीनन लिपस्टिक का था।”
“या’नी लिपस्टिक लगे होंट मेरी क़मीस चूमते रहे।”

“आपको बातें बनाना ख़ूब आती हैं, क़मीस चूमने का सवाल क्या पैदा होता है, क्या होंट वैसे ही क़मीस से नहीं छू सकते।”
“छू सकते हैं बाबा... छू सकते हैं। तुम ये समझती हो कि मैं कोई यूसुफ़ हूँ कि लड़कियां मेरे हुस्न से इस क़दर मुतास्सिर होती हैं कि ग़श खा कर मुझ पर गिरती जाती हैं और मैं झाड़ू हाथ में लेकर सड़कों से ये कूड़ा करकट उठाता रहता हूँ।”

“मर्द हमेशा यही कहा करते हैं।”
“देखो, तुम औरत ज़ात की ख़ुद औरत हो कर तौहीन कर रही हो। क्या औरतें इतने ही कमज़ोर किरदार की हैं कि हर मर्द के आगे पा अंदाज़ की तरह बिछ जाएं, ख़ुदा के लिए कुछ तो अपनी सिन्फ़ का ख़याल करो, मैंने तो हमेशा हर औरत की इज़्ज़त की है।”

“इज़्ज़त करना ही तो आपका सबसे बड़ा हथियार है जो बेचारी भोली भाली औरत को आपके जाल में फंसा लेता है।”
“मैं कोई चिड़ीमार नहीं, जो जाल बिछाता फिरे।”

“आप कस्र-ए-नफ़्सी से काम ले रहे हैं वर्ना आप अच्छी तरह जानते हैं कि आप चिड़ी मारों के गुरु हैं।”
“ये रुतबा आज तुमने बख्शा है। आठ दस रोज़ हुए मुझे कमीना कहा गया था, आज चिड़ी मारों का गुरु, परसों ये इरशाद होगा कि तुम हिटलर हो।”

“वो तो आप हैं। इस घर में चलती किसकी है? जो आप कहें वही होगा, हो के रहेगा। मैं तो तीन में हूँ न तेरह में।”
“मैं कहता हूँ अब ये फ़ुज़ूल बकवास बंद हो जानी चाहिए, मेरा दिमाग़ चकरा गया है।”

“दिमाग़ आपका बहुत नाज़ुक है। ज़रा सी बात करो तो चकराने लगता है। मैं औरत हूँ मेरा दिमाग़ तो आज तक आपकी बातों से नहीं चकराया।”
“औरतें बड़ी सख़्त दिमाग़ होती हैं, यूँ तो उन्हें सिन्फ़-ए-नाज़ुक कहा जाता है मगर जब वास्ता पड़े तो मालूम होता है कि उन ऐसी सिन्फ़-ए-करख़्त दुनिया के तख़्ते पर और कोई भी नहीं।”

“आप हद से बढ़ रहे हैं।”
“क्या करूं, तुम जो मेरा दिमाग़ चाट गई हो। तुम इतना तो सोचो कि मैं दफ़्तर में आठ घंटे झक मार कर घर आया हूँ, थका हारा हूँ, मुझे आराम की ज़रूरत है और तुम ले बैठी हो एक फ़र्ज़ी क़िस्सा कि तुमसे मिलने के लिए सुबह-सवेरे कोई आया था। कौन आया था, ये बता दो तो सारी झंझट ख़त्म हो।”

“आप तो बस बात टालना चाहते हैं।”
“कौन ख़र-ज़ात बात टालना चाहता है। मैं तो चाहता हूँ कि ये किसी न किसी हीले ख़त्म हो, लो अब बता दो कौन आया था मुझसे मिलने?”

“एक चुड़ैल थी।”
वो यहां क्या करने आई थी। मेरा उससे क्या काम?”

“ये आप उसी से पुछिएगा।”
“अब तुम मुझसे पहेलियां न बुझवाओ, बताओ कौन आया था, लेकिन तुम तो उपर कोठे पर सो रही थी।”

“मैं कहीं भी सोऊं लेकिन मुझे हर बात की ख़बर होती है।”
“अच्छा भई, मैं तो अब हार गया... नहा धो कर क्लब जाता हूँ कि तबीयत का तकद्दुर किसी क़दर दूर हो।”

“साफ़ क्यों नहीं कहते कि आप उससे मिलने जा रहे हैं।”
“ख़ुदा की क़सम आज मेरा दिमाग़ पाश पाश हो जाएगा। मैं किससे मिलने जा रहा हूँ।”

“उसी से।”
“तुम्हारा मतलब है उसी चुड़ैल से।”

“अब आप समझ गए तो क्लब जा कर आपको और किससे मिलना है, मुझ से?”
“तुम तो हर वक़्त मेरे सीने पर सवार रहती हो।”

“इसीलिए तो आप अपने सीने का बोझ हल्का करने जा रहे हैं... किसी दिन मुझे ज़हर ही क्यों नहीं दे देते, ताकि क़िस्सा ही ख़त्म हो।”
“इतनी देर तो मैं पागल नहीं हुआ लेकिन आज ज़रूर हो जाऊंगा।”

“इसलिए कि मैंने आपकी दुखती रग पर हाथ रख दिया है।”
“मेरी तो हर रग आज दुख रही है, तुमने मुझे इस क़दर झिंजोड़ा और लताड़ा है कि अल्लाह की पनाह... तुम औरत नहीं हो, लंधोर पहलवान हो।”

“ये सुनना आपसे बाक़ी रह गया था... न रहे वो चुड़ैल इस दुनिया के तख़्ते पर...”
“फिर वही चुड़ैल... देखो बाहर डेवढ़ी से मुझे किसी औरत की आवाज़ सुनाई दी है।”

“आप ही जा कर देखिए।”
“लाहौल वला... औरतों को देखना मेरा काम नहीं, तुम्हारा है!”

“नौकर से कहती हूँ।”
“बीबी जी, वही बीबी आई हैं जो आज सुबह आई थीं।”

“मैं चलता हूँ।”
“नहीं नहीं, आप ही से तो वो मिलने आई है।”

“ओह ज़किया, तुम... तुम... तुम यहां कब आईं?”
“हवाई जहाज़ में पहले नेरूबी से कराची पहुंची, फिर वहां से यहां हवाई जहाज़ ही में आई। अब्बा जी बाहर खड़े हैं।”

“तुमने भी हद कर दी ज़किया, मैं ख़ुद जाती हूँ... अपने अब्बा जी को लेने, इतनी मुद्दत हो गई है उन को देखे हुए!”


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