मुरासिला

मुकर्रमी! आपके मूक़र अख़बार के ज़रीये में मुताल्लिक़ा हुक्काम को शहर के मग़रिबी इलाक़े की तरफ़ मुतवज्जा कराना चाहता हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज जब बड़े पैमाने पर शहर की तौसीअ हो रही है और हर इलाक़े के शहरीयों को जदीद तरीन सहूलतें बहम पहुंचाई जा रही हैं, ये मग़रिबी इलाक़ा बिजली और पानी की लाईनों तक से महरूम है। ऐसा मालूम होता है कि इस शहर की तीन ही सम्तें हैं। हाल ही में जब एक मुद्दत के बाद मेरा इस तरफ़ एक ज़रूरत से जाना हुआ तो मुझको शहर का ये इलाक़ा बिलकुल वैसा ही नज़र आया जैसा मेरे बचपन में था।
(१)

मुझे इस तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अपनी वालिदा की वजह से मजबूर हो गया। बरसों पहले वो बुढ़ापे के सबब चलने फिरने से माज़ूर हो गई थीं, फिर उनकी आँखों की रोशनी भी क़रीब क़रीब जाती रही और ज़हन भी माऊफ़ सा हो गया। माज़ूरी का ज़माना शुरू होने के बाद भी एक अर्से तक वो मुझको दिन रात में तीन चार मर्तबा अपने पास बुला कर कपकपाते हाथों से सर से पैर तक टटोलती थीं। दर असल मेरे पैदा होने के बाद ही से उनको मेरी सेहत ख़राब मालूम होने लगी थी। कभी उन्हें मेरा बदन बहुत ठंडा महसूस होता, कभी बहुत गर्म, कभी मेरी आवाज़ बदली हुई मालूम होती और कभी मेरी आँखों की रंगत में तग़य्युर नज़र आता। हकीमों के एक पुराने ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने की वजह से उनको बहुत सी बीमारीयों के नाम और ईलाज ज़बानी याद थे और कुछ-कुछ दिन बाद वो मुझे किसी नए मर्ज़ में मुबतला क़रार देकर उस के ईलाज पुर इसरार करती थीं। उनकी माज़ूरी के इबतिदाई ज़माने में दो तीन बार ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि मैं किसी काम में पड़ कर उनके कमरे में जाना भूल गया, तो वो मालूम नहीं किस तरह ख़ुद को खींचती हुई कमरे के दरवाज़े तक ले आएं। कुछ और ज़माना गुज़रने के बाद जब उनकी रही सही ताक़त भी जवाब दे गई तो एक दिन उनके मुआलिज ने महिज़ ये आज़माने की ख़ातिर कि आया उनके हाथ पैरों में अब भी कुछ सकत बाक़ी है, मुझे दिन-भर उनके पास नहीं जाने दिया और वो ब-ज़ाहिर मुझसे बे-ख़बर रहीं, लेकिन रात गए उनके आहिस्ता-आहिस्ता कराहने की आवाज़ सुनकर जब मैं लपकता हुआ उनके कमरे में पहुंचा तो वो दरवाज़े तक का आधा रास्ता तै कर चुकी थीं। उनका बिस्तर, जो इन्होंने मेरे वालिद के मरने के बाद से ज़मीन पर बिछाना शुरू कर दिया था, उनके साथ घिसटता हुआ चला आया था। देखने में ऐसा मालूम होता था कि बिस्तर ही उनको खींचता हुआ दरवाज़े की तरफ़ लिए जा रहा था। मुझे देखकर इन्होंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन तकान के सबब बेहोश हो गईं और कई दिन तक बेहोश रहीं। उनके मुआलिज ने बार-बार अपनी ग़लती का एतराफ़ और इस आज़माईश पर पछतावे का इज़हार किया, इसलिए कि इस के बाद ही से मेरी वालिदा की बीनाई और ज़हन ने जवाब देना शुरू किया, यहां तक कि रफ़्ता-रफ़्ता उनका वजूद और अदम बराबर हो गया।
उनके मुआलिज को मरे हुए भी एक अरसा गुज़र गया। लेकिन हाल ही में एक रात मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि वो मेरे पायँती ज़मीन पर बैठी हुई हैं और एक हाथ से मेरे बिस्तर को टटोल रही हैं। मैं जल्दी से उठकर बैठ गया।

आप...? मैंने उनके हाथ पर ख़ुशक रगों के जाल को देखते हुए पूछा, यहां आ गईं?
तुम्हें देखने। कैसी तबीयत है? इन्होंने अटक अटक कर कहा, फिर उन पर ग़फ़लत तारी हो गई।

मैं बिस्तर से उतर कर ज़मीन पर उनके बराबर बैठ गया और देर तक उनको देखता रहा। मैंने उनकी इस सूरत का तसव्वुर किया जो मेरी अव्वलीन यादों में महफ़ूज़ थी और चंद लम्हों के लिए उनके बूढ़े चेहरे की जगह उन्हें यादों वाला चेहरा मेरे सामने आ गया। इतनी देर में उनकी ग़फ़लत कुछ दूर हुई। मैंने आहिस्तगी से उन्हें उठाने की कोशिश करते हुए कहा,
आईए आपको आपके कमरे में पहुंचा दूं।

नहीं! इन्होंने बड़ी मुश्किल से कहा, पहले बताओ।
क्या बताऊं? मैंने थके हुए लहजे में पूछा।

तबीयत कैसी है?
कुछ दिन से मेरी तबीयत वाक़ई ख़राब थी, इसलिए मैंने कहा, ठीक नहीं हूँ।

मेरी तवक़्क़ो के ख़िलाफ़ इन्होंने बीमारी की तफ़सील दरयाफ़त करने के बजाय सिर्फ इतना पूछा,
किसी को दिखाया?

किस को दिखाऊँ?
मुझे मालूम था वो क्या जवाब देंगी। ये जवाब वो फ़ौरन और हमेशा तेज़ लहजे में देती थीं, लेकिन इस बार इन्होंने देर तक चुप रहने के बाद बड़ी अफ़्सुर्दगी और क़दरे मायूसी के साथ वही बात कही,

तुम वहां क्यों नहीं चले जाते?
मैं उनके साथ बचपन में वहां जाया करता था। वो पुराने हकीमों का घराना था। ये लोग मेरी वालिदा के क़रीबी अज़ीज़ थे। उनका मकान बहुत बड़ा था जिसके मुख़्तलिफ़ दर्जों में कई ख़ानदान रहते थे। इन सब ख़ानदानों के सरबराह एक हकीम साहिब थे जिन्हें शहर में कोई ख़ास शौहरत हासिल नहीं थी लेकिन आस-पास के देहातों से उनके यहां इतने मरीज़ आते थे जितने शहर के नामी डाक्टरों के पास भी ना आते होंगे।

इस मकान में तक़रीबें बहुत होती थीं जिनमें मेरी वालिदा को खासतौर पर बुलाया जाता था और अक्सर वो मुझे भी साथ ले जाती थीं। मैं इन तक़रीबों की अजीब अजीब रस्मों को बड़ी दिलचस्पी से देखता था। मैं ये भी देखता था कि वहां मेरी वालिदा की बड़ी क़दर होती है और उनके पहुंचते ही सारे मकान में ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है। वो ख़ुद भी वहां के किसी फ़र्द को फ़रामोश ना करतीं, छोटों और बराबर वालों को अपने पास बुलातीं, बड़ों के पास आप जातीं और वहां के ख़ानदानी झगड़ों में, जो अक्सर हुआ करते, उनका फ़ैसला सबको मंज़ूर होता था।
वहां इतने बहुत से लोग थे, लेकिन मुझको सिर्फ़ हकीम साहिब का चेहरा धुँदला धुँदला सा याद था वो भी शायद इस वजह से कि उनमें और मेरी वालिदा में हल्की सी ख़ानदानी मुशाबहत थी। इतना मुझे अलबत्ता याद है कि वहां हर उम्र की औरतें, मर्द और बच्चे मौजूद रहते थे और उनके हुजूम में घिरी हुई अपनी वालिदा मुझे ऐसी मालूम होती थीं जैसे बहुत सी पत्तियों के बीच में एक फूल खुला हुआ हो।

लेकिन इस वक़्त वो अपना मुरझाया हुआ चेहरा मेरी तरफ़ घुमाये हुए अपनी बुझी हुई आँखों से मेरा चेहरा देखने की कोशिश कर रही थीं।
तुम्हारी आवाज़ बैठी हुई है इन्होंने कहा, तुम वहां क्यों नहीं चले जाते?

वहां... अब मैं वहां किसी को पहचान भी ना पाऊँगा।
देखोगे तो पहचान लोगे। नहीं तो वो लोग ख़ुद बताएँगे।

इतने दिन हो गए मैंने कहा, अब मुझे रास्ता भी याद नहीं।
बाहर निकलोगे तो याद आता जाएगा।

किस तरह? मैंने कहा, सब कुछ तो बदल गया होगा।
कुछ भी नहीं इन्होंने कहा। फिर उन पर ग़फ़लत तारी होने लगी, लेकिन एक-बार फिर इन्होंने कहा, कुछ भी नहीं। इस के बाद वो बिलकुल ग़ाफ़िल हो गईं।

मैं देर तक उनको सहारा दिए बैठा रहा। मैंने इस मकान का रास्ता याद करने की कोशिश की। मैंने इन दिनों का तसव्वुर किया जब में अपनी वालिदा के साथ वहां जाया करता था। मैंने इस मकान का नक़्शा भी याद करने की कोशिश की लेकिन मुझे उस के सिवा कुछ याद ना आया कि इस के सदर दरवाज़े के सामने एक टीला था जो हकीमों का चबूतरा कहलाता था। इतना और मुझे याद था कि हकीमों का चबूतरा शहर के मग़रिब की जानिब था, इस पर चंद कच्ची क़ब्रें थीं और इस तक पहुंचते पहुंचते शहर के आसार ख़त्म हो जाते हैं।
मैंने अपनी वालिदा को अपने हाथों पर उठा लिया। बिलकुल इसी तरह जैसे कभी वो मुझको उठाया करती थीं, और ये समझा कि मैंने उनका कुछ क़र्ज़ उतारा है, और अगरचे वो बिलकुल ग़ाफ़िल थीं, लेकिन मैंने उनसे कहा,

आईए आपको आपके कमरे में पहुंचा दूं। कल सवेरे में वहां ज़रूर जाऊँगा।
दूसरे दिन सूरज निकलने के कुछ देर बाद मेरी आँख खुली, और आँख खुलने के कुछ देर बाद में घर से रवाना हो गया।

(२)
ख़ुद अपने मुहल्ले के मग़रिबी हिस्से की तरफ़ एक मुद्दत से मेरा गुज़र नहीं हुआ था। अब जो मैं इधर से गुज़रा तो मुझे बड़ी तबदीलीयां नज़र आएं। कच्चे मकान पक्के हो गए थे। ख़ाली पड़े हुए अहाते छोटे छोटे बाज़ारों में बदल गए थे। एक पुराने मक़बरे के खन्डर की जगह इमारती लक्कड़ी का गोदाम बन गया था। जिन चेहरों से में बहुत पहले आश्ना था उनमें से कोई नज़र नहीं आया, अगरचे मुझको जानने वाले कई लोग मिले जिनमें से कई को में भी पहचानता था, लेकिन मुझे ये नहीं मालूम था कि वो मेरे ही हम मुहल्ला हैं। मैंने उनसे रस्मी बातें भी कीं लेकिन किसी को ये नहीं बताया कि मैं कहाँ जा रहा हूँ।

कुछ देर बाद मेरा मुहल्ला पीछे रह गया। गले की मंडी आई और निकल गई। फिर दवाओं और मसालों की मंडी आई और पीछे रह गई। इन मंडीयों के दाहने बाएं दूर दूर तक पुख़्ता सड़कें थीं जिन पर खाने पीने की आरिज़ी दुकानें भी लगी हुई थीं, लेकिन मैं जिस सड़क पर सीधा आगे बढ़ रहा था इस पर अब जा-ब-जा गड्ढे नज़र आ रहे थे। कुछ और आगे बढ़कर सड़क बिलकुल कच्ची हो गई। रास्ता याद ना होने के बावजूद मुझे यक़ीन था कि मैं सही सिम्त में जा रहा हूँ, इसलिए में आगे बढ़ता गया।
धूप में तेज़ी आ गई थी और अब कच्ची सड़क के आसार भी ख़त्म हो गए थे, अलबत्ता गर्द-आलूद पत्तियों वाले दरख़्तों की दो-रूया मगर टेढ़ी-मेढ़ी क़तारों के दरमयान उस का तसव्वुर किया जा सकता था, लेकिन अचानक ये क़तारें इस तरह मुंतशिर हुईं कि सड़क हाथ के फैले हुए पंजे की तरह पाँच तरफ़ इशारा कर के रह गई। यहां पहुंच कर में तज़बज़ब में पड़ गया। मुझे घर से निकले हुए बहुत देर नहीं हुई थी और मुझे यक़ीन था कि मैं अपने मुहल्ले से बहुत दूर नहीं हूँ। फिर भी मैंने वहां पर ठहर कर वापसी का रास्ता याद करने की कोशिश की। मैंने पीछे मुड़ कर देखा। गर्द-आलूद पत्तियों वाले दरख़्त ऊंची नीची ज़मीन पर हर तरफ़ थे। मैंने उनकी क़तारों के दरमयान सड़क का तसव्वुर किया था लेकिन वो क़तारें भी शायद मेरे तसव्वुर की पैदावार थीं, इसलिए कि अब उनका कहीं पता ना था। अपने हिसाब से मैं बिलकुल सीधी सड़क पर चला आ रहा था, लेकिन मुझे बारहा उस का तजुर्बा हो चुका था कि देखने में सीधी मालूम होने वाली सड़कें इतने ग़ैर महसूस तरीक़े पर इधर उधर घूम जाती हैं कि उन पर चलने वाले को ख़बर भी नहीं होती और इस का रुख कुछ का कुछ हो जाता है। मुझे यक़ीन था कि यहां तक पहुंचते पहुंचते में कई मर्तबा इधर उधर घूम चुका हूँ, और अगर मुझको सड़क का सुराग़ ना मिल सका तो मैं ख़ुद से अपने घर तक नहीं पहुंच सकता लेकिन इस वक़्त मुझको वापसी के रास्ते से ज़्यादा हकीमों के चबूतरे की फ़िक्र थी जो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। हर तरफ़ फैले हुए दरख़्त इतने छिदरे थे कि ज़मीन का कोई बड़ा हिस्सा मेरी निगाहों से ओझल नहीं था, लेकिन मेरे बाएं हाथ ज़मीन दूर तक ऊंची होती गई थी और इस पर जगह जगह ग़नजान झाड़ियाँ आपस में उलझी हुई थीं। उनकी वजह से बुलंदी के दूसरी तरफ़ वाला नशीबी हिस्सा नज़र नहीं आता था।

अगर कुछ होगा तो उधर ही होगा, मैंने सोचा और इस सिम्त चल पड़ा। मेरा ख़्याल सही था। झाड़ीयों के एक बड़े झुण्ड में से निकलते ही मुझे सामने कत्थई रंग की पतली पतली ईंटों वाला एक मकान नज़र आया। ये वो मकान नहीं था जिसकी मुझे तलाश थी, ताहम में सीधा इस तरफ़ बढ़ता गया। इस के दरवाज़े पर किसी के नाम की तख़्ती लगी हुई थी जिसके क़रीब क़रीब सब हुरूफ़ मिट चुके थे। मकान के अंदर ख़ामोशी थी लेकिन वैसी नहीं जैसी वीरान मकानों से बाहर निकलती महसूस होती है, इसलिए मैंने दरवाज़े पर तीन बार दस्तक दी। कुछ देर बाद दरवाज़े के दूसरी तरफ़ हल्की सी आहट हुई और किसी ने आहिस्ता से पूछा,
कौन साहिब हैं?

बताने से किया फ़ायदा? मैंने सोचा, और कहा,
मैं शायद रास्ता भूल गया हूँ, हकीमों का चबूतरा उधर ही कहीं है?

हकीमों का चबूतरा? आप कहाँ से आए हैं?
ये ग़ैर मुताल्लिक़ बात थी। अपने सवाल के जवाब में सवाल सुनकर मुझे हल्की सी झुँझलाहट महसूस हुई, लेकिन दरवाज़े के दूसरी तरफ़ कोई औरत थी जिसकी आवाज़ नरम और लहजा बहुत मुहज़्ज़ब था। उसने दरवाज़े के ख़फ़ीफ़ से खुले हुए पिट को पकड़ रखा था। इस के नाख़ुन नारंजी पालिश से रंगे हुए थे। मुझे वहम सा हुआ कि दरवाज़े का पुट थोड़ा और खुला और एक लम्हे के अंदर मुझको दरवाज़े के पीछे छोटी सी नीम-तारीक डेयुढ़ी और डेयुढ़ी के पीछे सेहन का एक गोशा और इस में लगे हुए अनार के दरख़्त की कुछ शाख़ें नज़र आ गईं जिन पर धूप पड़ रही थी। और दूसरे लम्हे मुझे कुछ-कुछ याद आया कि मेरी वालिदा कभी कभी थोड़ी देर के लिए इस मकान में भी उतरती थीं। लेकिन इस मकान के रहने वाले मुझे याद ना आ सके।

आप कहीं बाहर से आए हैं? दरवाज़े के दूसरी तरफ़ से फिर आवाज़ आई।
जी नहीं! मैंने कहा और अपना अता-पता बता दिया। फिर कहा, बहुत दिनों के बाद इधर आया हूँ।

देर के बाद मुझे जवाब मिला,
इस मकान के पीछे चले जाईए। चबूतरा सामने ही दिखाई देगा।

मकान के अंदरूनी हिस्से से किसी बूढ़ी औरत की भारी आवाज़ सुनाई दी,
कौन आया है, महर?

मैं रस्मी शुक्रिया अदा कर के मकान की पुश्त पर आ गया। सामने दूर तक छोटे बड़े कई टीले नज़र आ रहे थे और उनकी बे-तरतीब क़तारें फिर एक सड़क का तसव्वुर पैदा कर रही थीं। ये टीले महिज़ मिट्टी के तूदे थे, लेकिन उनसे ज़रा हट कर एक टीले पर झाड़ियाँ नज़र आ रही थीं। मैंने इस टीले को ग़ौर से देखा। झाड़ीयों के बीच बीच में कच्ची क़ब्रों के निशान नुमायां थे। बाअज़ बाअज़ क़ब्रों पर चूने की सफ़ेदी धूप में चमक रही थी।
(३)

मकान चबूतरे की ओट में था और इस तक पहुंचने के लिए मुझे चबूतरे का आधा चक्कर काटना पड़ा। पुरानी लक्कड़ी के भारी सदर दरवाज़े के सामने खड़ा देर तक मैं सोचता रहा कि अपने आने की इत्तिला किस तरह कराऊँ। दरवाज़े की लक्कड़ी बहुत दुबैज़ और थोड़ी सैली हुई थी। इस पर दस्तक देने का कोई फ़ायदा नहीं था, फिर भी मैंने तीन बार इस पर हाथ मारा, लेकिन अपनी दस्तक की आवाज़ ख़ुद मुझको ठीक से सुनाई नहीं दी। मुझे शुबा हुआ कि मकान वीरान है। मैंने दरवाज़े को आहिस्ता से धक्का दिया तो उस के दोनों पट बड़ी सहूलत के साथ अपनी चोलों पर घूम गए और मुझको अपने सामने एक कुशादा डेयुढ़ी नज़र आई जिसके एक सिरे पर दोहरे टाट का पर्दा लटक रहा था। मैं दरवाज़े के क़रीब गया और अब मुझे मकान के अंदर लोगों के बोलने चालने की आवाज़ें सुनाई दें। मैंने दस्तक दी और अंदर किसी ने किसी को पुकार कर कहा,
देखो कोई आया है।

तब मेरा दिमाग़ सवालों से मुंतशिर होना शुरू हुआ। इस मकान में कौन कौन है मैं किस से किया बात करूँगा अपने आने की ग़रज़ क्या बताऊँगा अपने को किस तरह पहचनवाओं गा। मेरा जी चाहा कि वापिस लौट जाऊं, लेकिन उसी वक़्त पर्दे के पीछे से किसी औरत ने रूखे लहजे में पूछा,
कौन है?

मैंने अपना पूरा नाम बता दिया।
किस से मिलना है?

इस का मेरे पास एक ही जवाब था।
हकीम साहिब से मैंने कहा।

मतब दूसरी तरफ़ है। वहीं जाईए। वो तैयार हो रहे हैं।
आख़िरी लफ़्ज़ों तक पहुंचते पहुंचते आवाज़ दूर होना शुरू हो गई थी, इसलिए मैंने और ज़रा बुलंद आवाज़ में कहा,

अंदर इत्तिला करा दीजीए।
आवाज़ फिर क़रीब आ गई और अब उस के लहजे का रूखापन कुछ कम हुआ,

आप कहाँ से आए हैं?
मैंने यहां भी अपना अता-पता बताया कुछ तवक़्क़ुफ़ किया, फिर अपनी वालिदा का नाम लिया फिर तवक़्क़ुफ़ किया फिर उनका घर का नाम बताया ये बताया कि मैं उनका बेटा हूँ फिर झिजकते झिजकते अपना वो दुलार का नाम भी बता दिया जिससे मैं बचपन में चिड़ता था। मैंने ये सब कुछ बहुत बे-तरतीब अंदाज़ में बताया, जिसे पर्दे के उधर वाली औरत ने किसी के पूछने पर क़दरे मरबूत कर के दुहराया, और मकान के अंदर औरतों के बोलने की आवाज़ें थोड़ी देर के लिए तेज़ हो गईं। मुझे उन आवाज़ों में अपनी वालिदा का घर का नाम और अपना बचपन वाला नाम बार-बार सुनाई दिया। ये दोनों नाम में बहुत दिनों के बाद सन रहा था। मुझे यक़ीन हो गया कि अगर ये नाम इसी तरह सुनाई देते रहे तो मुझको इस मकान का पूरा नक़्शा और इस के रहने वाले सब याद आ जाऐंगे बल्कि मेरे ज़हन में एक कुशादा सेहन का नक़्श बनना शुरू भी हो गया था, लेकिन ऐन उस वक़्त हल्की सी खड़खड़ाहट के साथ टाट का पर्दा मेरी तरफ़ बढ़ा, ऊपर उठा, और इस के नीचे से एक बाईसकल का उगला पहीया नमूदार हवा में एक किनारे हो गया और बाईसकल लिए हुए एक लड़का अंदर से डेयुढ़ी में आया और मुझे सलाम करता हुआ सदर दरवाज़े से बाहर निकल गया। मैं ख़ामोश खड़ा इंतिज़ार करता रहा। कुछ देर बाद पर्दे के पीछे से दबी दबी आवाज़ें आएं और चार पाँच बतखें पर्दे के नीचे से निकल कर डेयुढ़ी में आएं । उनकी बे-तरतीब क़तार देखकर साफ़ मालूम होता था कि उन्हें बाहर की तरफ़ हँका या गया है। बतखें आपस में चिमीगोइयां सी करती और डगमगाती हुई सदर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गईं। इस के बाद मकान के अंदर से देर तक कोई आवाज़ नहीं आई। मैं डेयुढ़ी में खड़े खड़े उकता गया। मुझे वहम होने लगा कि पर्दे के पीछे से वीरान मकानों वाली ख़ामोशी बाहर निकल कर मुझको अपनी लपेट में ले रही है। लेकिन उसी वक़्त दूसरी तरफ़ से किसी ने कहा,

आईए, अंदर चले आईए।
दोहरे टाट का पर्दा एक तरफ़ कर के में इस मकान के सेहन में उतर गया।

(४)
बड़े सेहन, दोहरे तिहरे दालानों, शह-नशीनों, सहनचीयों और लक्कड़ी की मेहराबों वाले मकान मैंने अपने बचपन में बहुत देखे थे। ये मकान उनसे मुख़्तलिफ़ नहीं था, लेकिन मुझे याद ना आ सका कि कभी में यहां आया करता था। कुशादा सेहन के बीच में कुछ लम्हों के लिए रुक कर मैंने देखा कि मकान का हर दर्जा आबाद है। कई सहनचीयों से औरतें गर्दन बाहर निकाले मुतजस्सिस नज़रों से मेरी तरफ़ देख रही थीं। मैंने अंदाज़ा लगाया कि इस घर की बेगम को किस हिस्से में होना चाहिए, और सीधा उस दालान की तरफ़ बढ़ता चला गया जिसकी बुलंद मेहराबों में उन्नाबी रंग के बड़े क़ुमक़ुमे लटक रहे थे। दालान में नीचे तख़्तों का चौका और इस के दोनों तरफ़ भारी मसहरीयाँ थीं। सब पर साफ़ धुली हुई चादरें बिछी थीं जिनमें से बाअज़ का अभी कलफ़ भी ना टूटा था। चौके पर एक मुअम्मर ख़ातून बैठी हुई थीं। मैंने उन्हें पहचाने बग़ैर सलाम किया, इन्होंने आहिस्ता से मुस्कुरा कर बहुत सी दुआएं दें। फिर बोलीं ,

बेटे! आज इधर कहाँ भूल पड़े?
मुझे ख़्याल हुआ ये सवाल इसलिए नहीं किया गया है कि इस का जवाब दिया जाये, लिहाज़ा अपने इमकान भर शाइस्तगी के साथ मैंने उनकी मिज़ाजपुर्सी की, और वो बोलीं ,

तुम्हें तो अब क्या याद होगा, छट पने में तुम यहां आते थे तो जाने का नाम नहीं लेते थे।
फिर इन्होंने ऐसी कई तक़रीबों का ज़िक्र किया जिनके बाद मेरी वालिदा को महिज़ मेरी ज़िद की वजह से कई कई दिन रुकना पड़ा था।

तब भी तुम रोते हुए जाते थे इन्होंने कहा, और दुपट्टे के पल्लू से आँखें पूँछें।
इस दौरान मकान के मुख़्तलिफ़ दर्जों से निकल निकल कर औरतें इस बड़े दालान में जमा होती रहीं। उनमें से ज़्यादा-तर ने अपना तआरुफ़ ख़ुद किराया। पेचीदा रिश्ते मेरी समझ में ना आते थे लेकिन मैंने ये ज़ाहिर किया कि हर तआरुफ़ कराने वाली को मैं पहचान गया हूँ और हर रिश्ता मुझे पहले ही से मालूम था। सब औरतों ने बालों में बहुत सा तेल लगा कर चपटी कंघी कर रखी थी। सब मोटे सोती दुपट्टे ओढ़े हुए थीं जिनमें से बाअज़ बाअज़ घर के रंगे हुए मालूम होते थे। हर एक के पास मेरे बचपन के क़िस्सों का ज़ख़ीरा था। मुझे सेहन के किनारे लगा हुआ अमरूद का एक दरख़्त दिखाया गया जिस पर से गिर कर में बेहोश हो गया था और मुझे बेहोश देखकर मेरी वालिदा भी बेहोश हो गई थीं। मेरी शरारतों का ज़िक्र छुड़ा तो मालूम हुआ कि मैंने वहां पर मौजूद हर औरत को किसी ना किसी शरारत का निशाना बनाया था।

मुझे एहसास हुआ कि मैं देर से एक लफ़्ज़ भी नहीं बोला हूँ। सब लोग शायद अब मेरे बोलने के मुंतज़िर थे और दालान में कुछ ख़ामोशी सी हो गई थी। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ाई तो चौके पर एक तरफ़ तीन चार लड़कीयां बैठी दिखाई दें। मैंने उनसे उनकी तालीम और दूसरे मशग़लों के बारे में दरयाफ़त किया तो वो शर्मा कर एक दूसरे के क़रीब घुसने लगीं और उनकी तरफ़ से दूसरों ने जवाब दिए। उनसे कुछ फ़ासले पर तीन लड़के किसी वक़्त आकर बैठ गए थे। मैंने उनसे अपने ख़्याल में उनकी दिलचस्पी की दो-चार बातें कीं, लेकिन मुझे मालूम नहीं था कि उन्हें किन बातों में दिलचस्पी है। लड़के मुझे बेवक़ूफ़ और लड़कीयां बे सूरत मालूम हुईं, लेकिन लड़कीयों का शरमाना अच्छा लगा। मैं उनसे कुछ और बातें करने के लिए उनकी दिलचस्पी का कोई मौज़ू सोच रहा था कि डेयुढ़ी के दरवाज़े पर खड़खड़ाहट हुई। साईकल वाला लड़का वापिस आ गया था। इस के हाथों में अख़बारी काग़ज़ की कई पुड़ीयां थीं जिनमें बाअज़ पर चिकनाई फूट आई थी। उसने दालान की तरफ़ देखकर कुछ इशारा किया और लड़कीयां उठकर चली गईं। कुछ देर बाद क़रीब के किसी दर्जे से उनके हँसने और चीनी के बर्तन बजने की आवाज़ें आएं। मुझे दोनों आवाज़ों में मुबहम सी मुशाबहत महसूस हुई, और ये भी शुबा हुआ कि लड़कीयां मेरे बोलने की नक़ल उतार रही हैं।
मैंने अंदाज़ा करने की कोशिश की कि मुझे इस दालान में बैठे हुए कितनी देर हुई होगी, लेकिन उसी वक़्त मेरे बाएं हाथ पर एक दरवाज़ा खुला और इस की चिलमन के पीछे हकीम साहिब खड़े नज़र आए। मैंने उन्हें फ़ौरन पहचान लिया। वो सर पर टोपी का ज़ावीया दरुस्त कर रहे थे। फिर वो चिलमन की तरफ़ मुँह कर के अपनी जेबों में कुछ टटोलने लगे। उनके पीछे एक और दरवाज़ा नज़र आ रहा था जिसके क़रीब देहाती मर्दों और औरतों का मजमा लगा हुआ था।

अरे भई, हम आ रहे हैं हकीम साहिब ने कहा और चिलमन उठाई।
आईए आईए घर की बेगम बोलीं, देखिए कौन आया है। पहचाना?

हकीम साहिब दालान में आ गए। मैंने जल्दी से उठकर उन्हें सलाम किया और इन्होंने आहिस्ता से मेरा नाम लिया। फिर बोले ,
मियां आप तो बहुत बदल गए, कहीं और देखता तो बिलकुल ना पहचानता।

कुछ देर तक वो भी मुझे मेरे बचपन की बातें बताते और मेरे वालिद की वज़्अ-दारी के क़िस्से सुनाते रहे। इतने में एक मुलाज़िमा पीतल की एक लंबी कश्ती में खाने की चीज़ें लेकर आ गई। मैंने एक नज़र कश्ती में लगी हुई चीनी की नाज़ुक तश्तरियों को देखा। उनमें ज़्यादा-तर बाज़ार का सामान था, लेकिन कुछ चीज़ें घर की बनी हुई भी थीं। हकीम साहिब ने क्षति की तरफ़ इशारा किया और बोले ,
मियां, तकल्लुफ़ से काम मत लीजीएगा फिर बेगम से बोले, अच्छा भई, हमको देर हो रही है। इस के बाद वो वापिस अपने कमरे में चले गए।

उनको मतब से फ़ुर्सत ही नहीं होती बेगम ने माज़रत के अंदाज़ में कहा। वो कुछ और भी कह रही थीं, लेकिन मुझ पर शायद कुछ देर को ग़नूदगी सी तारी हो गई थी, इसलिए कि जब मैं चौंका तो दालान में सिर्फ बेगम थीं और इस की दो मेहराबों पर किसी मोटे कपड़े के पर्दे झोल रहे थे। सिर्फ बीच की महिराब खुली हुई थी और इस में लटकता हुआ क़ुमक़ुमा हवा में हिलता हुआ कभी दाहिनी तरफ़ चक्कर खाता था कभी बाएं तरफ़। मैंने चिलमन की जानिब देखा। दूसरे दरवाज़े के क़रीब हकीम साहिब एक बूढ़े देहाती की नब्ज़ पर हाथ रखे किसी सोच में डूबे हुए थे। मैं बेगम की तरफ़ मुड़ा। इन पर भी ग़नूदगी तारी थी, लेकिन क़रीब की किसी सहनची से लड़कीयों की घुट्टी घुट्टी हंसी की आवाज़ आई तो वो होशयार हो कर बैठ गईं।
क्या महर आई हैं? इन्होंने अपने आपसे पूछा। मुझे उनके आसूदा चेहरे पर पहली बार फ़िक्र की हल्की सी परछाईऐं नज़र आई। इसी वक़्त दाहिनी तरफ़ वाली महिराब का पर्दा हटा और एक नौजवान लड़की दालान में दाख़िल हुई। मैंने उस को उचटती हुई नज़र से देखा। वो किसी बे-शिकन कपड़े की नारंजी सारी बाँधे थी और इस के नाख़ुन नारंजी पालिश से रंगे हुए थे। बेगम मुझसे मुख़ातब हुईं ,

महर को पहचाना?
मैंने फिर एक उचटती हुई नज़र उस के चेहरे पर डाली। इस के होंटों पर नारंजी लिपस्टिक की बहुत हल्की तह थी। मैंने सर को यूं जुंबिश दी गोया उसे भी दूसरी औरतों की तरह पहचान गया हूँ। फिर मैंने उस को ग़ौर से देखने का इरादा किया ही था कि पर्दे के पीछे से किसी लड़की ने उसे धीरे से आवाज़ दी और वो दालान से बाहर चली गई।

हकीम साहिब इसी तरह बूढ़े देहाती की नब्ज़ पर हाथ रखे हुए थे और बेगम पर फिर ग़नूदगी तारी हो गई थी। मैं उठकर खड़ा हो गया। बेगम ने अध-खुली आँखों से मेरी तरफ़ देखा और मैंने कहा,
अब इजाज़त दीजीए।

जाओगे? इन्होंने बोझल आवाज़ में पूछा, और अचानक मुझे कुछ याद आ गया।वो... डरावनी कोठरी... अब भी है? मैंने पूछा।
डरावनी कोठरी इन्होंने कहा, कुछ सोचा, फिर अफ़्सुर्दगी के साथ मुस्कुरा कर बोलीं, एक-बार तुमने महर को इस में बंद कर दिया था। फिर उनकी मुस्कुराहट में और ज़्यादा अफ़्सुर्दगी आ गई। चलो तुम्हें यहां की कोई शैय तो याद आई।

अब भी है? मैंने फिर पूछा।
वो क्या डेयुढ़ी के बराबर दरवाज़ा है। कुछ भी नहीं, वहां पहले बावरीचीख़ाना था, धोईं से दीवारें काली हैं। एक दरवाज़ा बाहर की तरफ़ भी है, खुला होगा। इस की कुंडी नहीं लग पाती।

मैं इधर ही से निकल जाऊँगा मैंने कहा, रुख़्सती सलाम के लिए हाथ उठाया और सेहन की तरफ़ मुड़ा।
इसी तरह कभी कभी याद कर लिया करो। पहले तो रोज़ का आना जाना था इन्होंने लंबी सांस ली और उनकी आवाज़ थोड़ी कपकपा गई, वक़्त ने बड़ा फ़र्क़ डाल दिया है, बेटे।

उनके होंट अभी हिल रहे थे, लेकिन मैं सेहन पार कर के डेयुढ़ी से मुत्तसिल दरवाज़े में दाख़िल हो गया। वहां कोई ख़ास बात नहीं थी। छत और दीवारों पर कलौंस थी, उस के बावजूद अंधेरा बहुत गहिरा नहीं था। एक तरफ़ भूसा मिली हुई चिकनी मिट्टी का बड़ा सा चूल्हा था जिसे तोड़ दिया गया था। सामने रोशनी की एक खड़ी लकीर नज़र आ रही थी।
बाहर का दरवाज़ा, मैंने अपने आपको बताया और लकीर के पास पहुंच कर इस से आँख लगा दी। सामने हकीमों का चबूतरा दिखाई दे रहा था। मेरी पेशानी को लोहे की लटकती हुई ज़ंजीरी कुंडी की ठंडक महसूस हुई। मैंने उसे अपनी तरफ़ खींचा। दरवाज़े का एक पुट खुला। मैंने कुंडी छोड़ दी। पिट आहिस्ता-आहिस्ता बंद हो गया। दो तीन मर्तबा यही हुआ। मुझे ख़्याल आया कि इस तरह के दरवाज़ों को खोलना और उन्हें अपने आप बंद होते हुए देखना बचपन में मेरा पसंदीदा खेल था। मैंने दोनों पट एक साथ अपनी तरफ़ खींच कर खोले और बाहर निकल आया।

कुछ देर बाद में कत्थई ईंटों वाले एक मंज़िला मकान की पुश्त पर था। हकीमों का चबूतरा और इस पर की झाड़ियाँ और कच्ची क़ब्रें अब और ज़्यादा साफ़ नज़र आ रही थीं। मुझे वहां किसी चीज़ की कमी महसूस हुई और इसी के साथ ख़्याल आया कि मैंने चबूतरे को ऊपर जा कर नहीं देखा। और इसी वक़्त मुझे कुछ और याद आ गया। मैं वापिस हुआ और चबूतरे के ऊपर आ गया।
क़ब्रों की तादाद मेरे अंदाज़े से ज़्यादा थी, लेकिन पतावर का वो झुण्ड ग़ायब था जो एक बहुत पुराने साँप का मस्कन बताया जाता था। जो लोग उसे देखने का दावा करते थे, उनका कहना था कि इस के फन पर बाल उग आए हैं। बच्चे पतावर के झुण्ड के पास खेलते रहते थे, बल्कि में तो उस के अंदर जा छुपता था लेकिन साँप से कभी किसी को नुक़्सान नहीं पहुंचा था। शायद इसी वजह से ये बात मशहूर थी कि वो कई पुश्तों से हकीम ख़ानदान का निगहबान है। ख़ुशक और सबज़ पतावर के इस झुण्ड का नक़्श मेरे ज़हन में बिलकुल वाज़िह हो गया था, लेकिन ये मुझे याद ना आ सका कि वो चबूतरे पर किस तरफ़ था। जिस जगह उस के होने का मुझे गुमान था वहां पर कई क़ब्रें थीं जिन पर चूने की सफ़ेदी चमक रही थी।

चबूतरे पर से मकान के सदर दरवाज़े को मैं देर तक देखता रहा। मेरा जी चाहने लगा कि इस पर दस्तक दूं, और मैं चंद क़दम इधर बढ़ा भी, लेकिन फिर रुक गया।
ये बहुत वाहीयात बात होगी, मैंने सोचा, और चबूतरे पर से मकान की मुख़ालिफ़ सिम्त उतर गया।

वापसी का रास्ता मुश्किल नहीं था। मैं बहुत आसानी से घर पहुंच गया।


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