जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाइए तो कुद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सिनेटोरियम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रुमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअ’ल्लुक़ नहीं। छः सात महीने हुए मुझे बटोत में अपने एक दोस्त की बीवी को देखने के लिए जाना पड़ा जो वहां सिनेटोरियम में ज़िंदगी के आख़िरी सांस ले रही थी। मेरे वहां पहुंचते ही एक मरीज़ चल बसा और बेचारी पदमा के सांस जो पहले ही उखड़े हुए थे और भी ग़ैर यक़ीनी होगए। मैं नहीं कह सकता वजह क्या थी लेकिन मेरा ख़याल है कि महज़ इत्तफ़ाक़ था कि चार रोज़ के अंदर अंदर इस छोटे से सिनेटोरियम में तीन मरीज़ ऊपर तले मर गए। जूंही कोई बिस्तर ख़ाली होता या तीमारदारी करते करते थके हुए इंसानों की थकी हुई चीख़ पुकार सुनाई देती, सारे सिनेटोरियम पर एक अजीब क़िस्म की ख़ाकसतरी उदासी छा जाती और वो मरीज़ जो उम्मीद के पतले धागे के साथ चिमटे होते थे, यास की अथाह गहराइयों में डूब जाते। मेरे दोस्त की बीवी पदमा तो बिल्कुल दमबख़ुद हो जाती। उसके पतले होंटों पर मौत की ज़रदियाँ काँपने लगतीं और उसकी गहरी आँखों में एक निहायत ही रहम अंगेज़ इस्तफ़सार पैदा हो जाता। सब से आगे एक ख़ौफ़ज़दा “क्यों?” और उसके पीछे बहुत से डरपोक “नहीं।” तीसरे मरीज़ की मौत के बाद में बाहर बरामदे में बैठ कर ज़िंदगी और मौत के मुतअ’ल्लिक़ सोचने लगा... सिनेटोरियम एक मर्तबान सा लगता है जिसमें ये मरीज़ प्याज़ की तरह सिरके में डले हुए हैं। एक कांटा आता है और जो प्याज़ अच्छी तरह गल गई है, उसे ढूंढता है और निकाल कर ले जाता है। ये कितनी मज़हकाख़ेज़ तशबीह थी। लेकिन जाने क्यों बार बार यही मेरे ज़ेहन में आई। मैं इससे ज़्यादा और कुछ न सोच सका कि मौत एक बहुत ही भोंडी चीज़ है... या’नी आप अच्छे भले जी रहे हैं, एक मर्ज़ कहीं से आन चिमटता है और मर जाते हैं। अफ़सानवी नुक़्ता-ए-नज़र से भी ज़िंदगी की कहानी का ये अंजाम कुछ चुस्त मालूम नहीं होता। बरामदे से उठ कर अंदर दाख़िल हुआ। दस-पंद्रह क़दम उठाए होंगे कि पीछे से आवाज़ आई,“दफ़ना आए आप, नंबर बाईस को?” मैंने मुड़ कर देखा। सफ़ेद बिस्तर पर दो काली आँखें मुस्कुरा रही थीं। ये आँखें जैसा कि मुझे बाद में मालूम हुआ, एक बंगाली औरत की थीं जो दूसरे मरीज़ों से बिल्कुल अलग तरीक़े पर अपनी मौत का इंतिज़ार कर रही थी। उसने जब ये कहा, “दफ़ना आए आप, नंबर बाईस को?” तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि हम इंसान को नहीं बल्कि एक अदद दफ़ना कर आरहे हैं। और सच पूछिए तो उस मरीज़ को क़ब्र के सपुर्द करते हुए मेरे दिल-ओ-दिमाग़ के किसी कोने में भी ये एहसास पैदा नहीं हुआ था कि वो एक इंसान था, और उसकी मौत से दुनिया में एक ख़ला पैदा हो गया है। मैं जब मज़ीद गुफ़्तुगू करने के लिए उस बंगाली औरत के पास बैठा जिसकी स्याह फ़ाम आँखें ऐसी हौलनाक बीमारी के बावजूद तर-ओ-ताज़ा और चमकीली थीं तो उसने ठीक उसी तरह मुस्कुरा कर कहा, “मेरा नंबर चार है।” फिर उसने अपनी सफ़ेद चादर की चंद सलवटें अपने उस्तख़्वानी हाथ से दुरुस्त कीं और बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में कहा, “आप मुर्दों को जलाने-दफ़नाने में काफ़ी दिलचस्पी लेते हैं।” मैंने यूंही सा जवाब दिया, “नहीं तो...” इसके बाद ये मुख़्तसर गुफ़्तुगू ख़त्म हो गई और मैं अपने दोस्त के पास चला गया। दूसरे रोज़ में हस्ब-ए-मा’मूल सैर को निकला। हल्की हल्की फ़ुवार गिर रही थी, जिससे फ़िज़ा बहुत ही प्यारी और मासूम होगई थी, या’नी जैसे उसको उन मरीज़ों से कोई सरोकार ही नहीं जो उसमें जरासीम भरे सांस ले रहे थे... चीड़ के लाँबे-लाँबे दरख़्त, नीली नीली धुन्द में लिपटी हुई पहाड़ियां, सड़क पर लुढ़कते हुए पत्थर, पस्त क़द मगर सेहतमंद भैंसें। हर तरफ़ ख़ूबसूरती थी... एक पर ए’तिमाद ख़ूबसूरती जिसे किसी चोर का खटका नहीं था। मैं सैर से लौट कर सिनेटोरियम में दाख़िल हुआ तो मरीज़ों के उतरे हुए चेहरों ही से मुझे मालूम होगया कि एक और अ’दद चल बसा है... ग्यारह नंबर, यानी पदमा। उसकी धंसी हुई आँखों में जो खुली रह गई थीं मैंने बहुत से ख़ौफ़ज़दा “क्यों” और उनके पीछे बेशुमार डरपोक “नहीं” मुंजमिद पाए... बेचारी! पानी बरस रहा था, इसलिए ख़ुश्क ईंधन जमा करने में बड़ी दिक़्क़त का सामना करना पड़ा। बहरहाल, उस ग़रीब की लाश को आग के सपुर्द कर दिया गया। मेरा दोस्त वहीं चिता के पास बैठा रहा और मैं उसका सामान ठीक करने के लिए सिनेटोरियम आ गया... अंदर दाख़िल होते हुए मुझे फिर उस बंगाली औरत की आवाज़ आई,“बहुत देर लग गई आपको!” “जी हाँ, बारिश की वजह से ख़ुश्क ईंधन नहीं मिल रहा था इसलिए देर हो गई।” “और जगहों पर तो ईंधन की दुकानें होती हैं, पर मैंने सुना है यहां इधर-उधर से ख़ुद ही लकड़ियां काटनी और चुननी पड़ती हैं।” “जी हाँ।” “ज़रा बैठ जाईए।” मैं उसके पास स्टूल पर बैठ गया तो उसने एक अ’जीब सा सवाल किया, “तलाश करते करते जब आपको ख़ुश्क लकड़ी का टुकड़ा मिल जाता होगा तो आप बहुत ख़ुश होते होंगे?” उसने मेरे जवाब का इंतिज़ार न किया और अपनी चमकीली आँखों से मुझे बग़ौर देखते हुए कहा, “मौत के मुतअ’ल्लिक़ आपका क्या ख़याल है?” “मैंने कई बार सोचा है लेकिन समझ नहीं सका।” वो दानाओं की तरह मुस्कुराई और बच्चों के से अंदाज़ में कहने लगी, “मैं कुछ कुछ समझ सकी हूँ... इसलिए कि बहुत मौतें देख चुकी हूँ... इतनी कि आप शायद हज़ार बरस भी ज़िंदा रह कर न देख सकें। मैं बंगाल की रहने वाली हूँ जहां का क़हत आजकल बहुत मशहूर है। आपको तो पता ही होगा। लाखों आदमी वहां मर चुके हैं... बहुत सी कहानियां छप चुकी हैं। सैंकड़ों मज़मून लिखे जा चुके हैं। फिर भी सुना है कि इंसान की इस बिप्ता का अच्छी तरह नक़्शा नहीं खींचा जा सका। मौत की उसी मंडी में मौत के मुतअ’ल्लिक़ मैंने सोचा।” मैंने पूछा, “क्या?” उसने उसी अंदाज़ से जवाब दिया, “मैंने सोचा कि एक आदमी का मरना मौत है... एक लाख आदमियों का मरना तमाशा है। सच कहती हूँ, मौत का वो ख़ौफ़ जो कभी मेरे दिल पर हुआ करता था, बिल्कुल दूर होगया। हर बाज़ार में दस-बीस अर्थियां और जनाज़े नज़र आएं तो क्या मौत का असली मतलब फ़ौत नहीं हो जाएगा?. मैं सिर्फ़ इतना समझ सकी हूँ कि ऐसी बेतहाशा मौतों पर रोना बेकार है... बेवक़ूफ़ी है... अव़्वल तो इतने आदमियों का मरना ही सबसे बड़ी हमाक़त है।” मैंने फ़ौरन ही पूछा, “किसकी।” “किसी की भी हो... हमाक़त, हमाक़त है। एक भरे शहर पर आप ऊपर से बम गिरा दीजिए... लोग मर जाऐंगे... कुओं में ज़हर डाल दीजिए... जो भी उनका पानी पीएगा, मर जाएगा। ये काल, क़हत, जंग और बीमारियां सब वाहियात हैं... इनसे मर जाना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे ऊपर से छत आ गिरे। लेकिन दिल की एक जायज़ ख़्वाहिश की मौत बहुत बड़ी मौत है... इंसान को मारना कुछ नहीं, लेकिन उसकी फ़ित्रत को हलाक करना बहुत बड़ा ज़ुल्म है। ये कह कर वो कुछ देर के लिए चुप हो गई लेकिन फिर करवट बदल कर कहने लगी, “मेरे ख़यालात पहले ऐसे नहीं थे। सच पूछिए तो मुझे सोचने का वक़ूफ़ ही नहीं था, लेकिन इस क़हत ने मुझे एक बिल्कुल नई दुनिया में फेंक दिया।” रुक कर एक दम वो मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुई। मैं अपनी कापी में याददाशत के तौर पर उसकी चंद बातें नोट कर रहा था। “ये आप क्या लिख रहे हैं?” मैंने साफगोई से काम लिया और कहा, “मैं अफ़साना निगार हूँ... जो बातें मुझे दिलचस्प मालूम हों, नोट करलिया करता हूँ।” “ओह! तो फिर मैं आपको अपनी पूरी कहानी सुनाऊंगी।” तीन घंटे तक नहीफ़ आवाज़ में वो मुझे अपनी कहानी सुनाती रही। मैं अब अपने अल्फ़ाज़ में उसे बयान करता हूँ। ग़ैर ज़रूरी तफ़सीलात में जाने की ज़रूरत नहीं। बंगाल में जब क़हत फैला और लोग धड़ा-धड़ मरने लगे तो सकीना को उसके चचा ने एक ओबाश आदमी के पास पाँसौ रुपये में बेच दिया जो उसे लाहौर ले आया और एक होटल में ठहरा कर उस से रुपया कमाने की कोशिश करने लगा। पहला आदमी जो उसके पास इस ग़रज़ से लाया गया एक ख़ूबसूरत और तंदुरुस्त नौजवान था। क़हत से पहले जब रोटी कपड़े की फ़िक्र नहीं थी, वो ऐसे ही नौजवान के ख़्वाब देखा करती थी जो उसका शौहर बने मगर यहां उस का सौदा किया जा रहा था। एक ऐसे फ़े’ल के लिए उसे मजबूर किया जा रहा था जिसके तसव्वुर ही से वो काँप काँप उठती थी। जब वो कलकत्ता से लाहौर लाई गई तो उसे मालूम था कि उसके साथ क्या सुलूक होने वाला है। वो बाशऊर लड़की थी। अच्छी तरह जानती थी कि चंद ही रोज़ में उसे एक सिक्का बना कर जगह जगह भुनाया जाएगा। उसको ये सब कुछ मालूम था लेकिन उस क़ैदी की तरह जो रहम की उम्मीद न होने पर भी आस लगाए रहता है, वो किसी नामुमकिन हादिसे की मुतवक़्क़े थी। ये हादिसा तो न हुआ लेकिन ख़ुद उसमें इतनी हिम्मत पैदा हो गई कि वो रात को कुछ अपनी होशियारी से और कुछ उस नौजवान की ख़ामकारी की बदौलत होटल से भाग निकलने में कामयाब होगई। अब लाहौर की सड़कें थीं और उनके नए ख़तरे। क़दम क़दम पर ऐसा लगता था कि लोगों की नज़रें उसे खा जाएंगी। लोग उसे कम देखते थे, लेकिन उसकी जवानी को जो छुपने वाली चीज़ नहीं थी, कुछ इतना ज़्यादा घूरते थे, जैसे बर्मे से उसके अंदर सूराख़ कर रहे हैं। सोने-चांदी का कोई ज़ेवर या मोती होता तो वो शायद लोगों की नज़रों से बचा लेती। मगर वो एक ऐसी चीज़ की हिफ़ाज़त कर रही थी जिस पर कोई भी आसानी के साथ हाथ मार सकता था। तीन दिन और तीन रातें वो कभी इधर कभी उधर घूमती भटकती रही। भूक के मारे उसका बुरा हाल था मगर उसने किसी के आगे हाथ न फैलाया क्योंकि उसे डर था कि उसका ये फैला हुआ हाथ उस की इस्मत समेत किसी अंधेरी कोठरी में खींच लिया जाएगा। दुकानों में सजी हुई मिठाईयां देखती थी, भटियार ख़ानों में लोग बड़े बड़े नवाले उठाते थे। उसके हर तरफ़ खाने-पीने की चीज़ों का बड़ी बेदर्दी से इस्तेमाल होता था... लेकिन जैसे दुनिया में उसके मक़सूम का कोई दाना ही नहीं रहा था। उसे ज़िंदगी में पहली बार खाने की अहमियत मालूम हुई। पहले उसको खाना मिलता था, अब वो खाने से मिलना चाहती थी। चार रोज़ के फ़ाक़ों ने उसे अपनी ही नज़रों में एक बहुत बड़ा शहीद तो बना दिया लेकिन उसके जिस्म की सारी बुनियादें हिल गईं। वो जो रुहानी तस्कीन होती है एक वक़्त आगया कि वो भी सिकुड़ने लगी। चौथे रोज़ शाम को वो एक गली में से गुज़र रही थी। जाने क्या जी में आई कि एक मकान के अंदर घुस गई। अंदर चल कर ख़याल आया कि नहीं, कोई पकड़ लेगा और तमाम किए कराए पर पानी फिर जाएगा। अब उसमें इतनी ताक़त भी तो नहीं। लेकिन सोचते सोचते वो सहन के पास पहुंच चुकी थी। मलगजे अंधेरे में उसने घड़ौंचियों पर दो साफ़ घड़े देखे और उनके साथ ही फलों से भरे हुए दो थाल... सेब... नाशपातियां... अनार... उसने सोचा अनार बकवास है... सेब और नाशपातियां ठीक हैं। घड़े के ऊपर चिपनी के बजाय एक प्याला पड़ा था... उसने तश्तरी उठा कर देखा तो मलाई से पुर था। उसने उठा लिया और पेशतर इसके कि वो कुछ सोच सके, जल्दी जल्दी उसने नवाले उठाने शुरू किए सारी मलाई उसके पेट में थी... कितना राहत बख़्श लम्हा था। भूल गई कि किसी ग़ैर के मकान में है। वहीं बैठ कर उसने सेब और नाशपातियां खाना शुरू करदीं। घड़ौंची के नीचे कुछ और भी था... यख़्नी... ठंडी थी लेकिन उसने सारी पतीली ख़त्म कर दी। एक दम जाने क्या हुआ, पेट की गहराईयों से गुबार सा उठा और उसका सर चकराने लगा। वो उठ खड़ी हुई। कहीं से खांसी की आवाज़ आई। भागने की कोशिश की मगर चकरा कर गिरी और बेहोश हो गई। जब होश आया तो वो एक साफ़-सुथरे बिस्तर में लेटी थी। सबसे पहले उसे ख़याल आया, कहीं मैं लूटी तो नहीं गई... लेकिन फ़ौरन ही उसे इत्मिनान हो गया कि वो सही सलामत थी। कुछ और सोचने ही लगी थी कि पतली पतली खांसी की आवाज़ आई। एक हड्डियों का ढांचा कमरे में दाख़िल हुआ। सकीना ने अपने गांव में बहुत से क़हत के मारे इंसान देखे थे मगर ये इंसान उनसे बहुत मुख़्तलिफ़ था। बेचारगी उसकी आँखों में भी थी मगर उसमें वो अनाज की तरसी हुई ख़्वाहिश नहीं थी। उसने पेट के भूके देखे थे जिनकी निगाहों में एक नंगी और भोंडी ललचाहट थी लेकिन उस मर्द की निगाहों में उसे एक चिलमन सी नज़र आई... एक धुँदला पर्दा जिसके पीछे से वो डर डर कर उसकी तरफ़ देख रहा था। ख़ौफ़ज़दा सकीना को होना चाहिए लेकिन सहमा हुआ वो था... उसने रुक रुक कर कुछ झेंपते हुए अजीब क़िस्म का हिजाब महसूस करते हुए उससे कहा, “जब तुम खा रही थीं तो मैं तुम से दूर खड़ा था... उफ़! मैंने किन मुश्किलों से अपनी खांसी रोके रखी कि तुम आराम से खा सको और मैं ये ख़ूबसूरत मंज़र ज़्यादा देर तक देख सकूं। भूक बड़ी प्यारी चीज़ है। लेकिन एक मैं हूँ कि इस नेअ’मत से महरूम हूँ। नहीं, महरूम नहीं कहना चाहिए क्योंकि मैंने ख़ुद इसको हलाक किया है।” सकीना कुछ भी समझ न सकी... वो एक पहेली थी जो बूझते बूझते एक और पहेली बन जाती थी लेकिन इसके बावजूद सकीना को उसकी बातें अच्छी लगीं जिनमें इंसानियत की गर्मी थी। चुनांचे उस ने अपनी सारी आपबीती उसको सुना दी। वो ख़ामोश सुनता रहा जैसे उसपर असर ही नहीं हुआ लेकिन जब सकीना उसका शुक्रिया अदा करने लगी तो उसकी आँखें जो आँसूओं से बेनियाज़ मालूम होती थीं एक दम नमनाक होगईं और उसने भर्राई हुई आवाज़ में कहा, “यहीं रह जाओ सकीना... मैं दिक़ का बीमार हूँ। मुझे कोई खाना... कोई फल अच्छा नहीं लगता। तुम खाया करना और मैं तुम्हें देखा करूंगा...” लेकिन फ़ौरन ही वो मुस्कुराने लगा। “क्या हमाक़त है... कोई और सुनता तो क्या कहता... या’नी दूसरा खाया करे और मैं देखा करूंगा। नहीं सकीना... वैसे मेरी दिली ख़्वाहिश है कि तुम यहीं रहो...” सकीना कुछ सोचने लगी, “जी नहीं... मेरा मतलब है आप इस घर में अकेले हैं और मैं... नहीं नहीं... बात ये है कि मैं...” ये सुन कर उसको कुछ ऐसा सदमा पहुंचा कि वो थोड़ी देर के बिल्कुल खो सा गया। जब बोला तो उसकी आवाज़ खोखली थी, “मैं दस बरस तक स्कूल में लड़कियां पढ़ाता रहा हूं, हमेशा मैंने उनको अपनी बच्चियां समझा... तुम... तुम एक और हो जाओगी।” सकीना के लिए कोई और जगह ही नहीं थी! चुनांचे उस प्रोफ़ेसर के हाँ ठहर गई। वो एक बरस और चंद महीने ज़िंदा रहा। इस दौरान में बजाय इसके कि सकीना उसकी ख़बरगीरी करती, उल्टा वो जो कि बीमार था, उसको आराइश-ओ-आराम पहुंचाने में कुछ इस बेकली से मसरूफ़ रहा जैसे डाक जाने वाली है और वो जल्दी जल्दी एक ख़त में जो बात उसके ज़ेहन में आती है लिखता जा रहा है। उसकी इस तवज्जो ने सकीना को जिसे तवज्जो की ज़रूरत थी, चंद महीनों में निखार दिया। अब प्रोफ़ेसर उससे कुछ दूर रहने लगा। मगर उसकी तवज्जो में कोई फ़र्क़ न आया। आख़िरी दिनों में अचानक उसकी हालत ख़राब होगई। एक रात जब कि सकीना उसके पास ही सो रही थी, वो हड़बड़ा कर उठा और ज़ोर से चिल्लाने लगा, “सकीना, सकीना।” ये चीख़ें सुन कर सकीना घबरा गई। प्रोफ़ेसर की धंसी हुई आँखों में वो जो चिलमन सी हुआ करती थी मौजूद नहीं थी। अब एक अथाह दुख सकीना को उनमें नज़र आया। प्रोफ़ेसर ने काँपते हुए हाथों से सकीना के हाथ पकड़े और कहा, “मैं मर रहा हूँ... लेकिन इस मौत का मुझे दुख नहीं... क्योंकि बहुत सी मौतें मेरे अंदर वाक़ा हो चुकी हैं। तुम सुनना चाहती हो मेरी दास्तान... जानना चाहती हो, मैं क्या हूँ? सुनो... मैं एक झूट हूँ... बहुत बड़ा झूट... मेरी सारी ज़िंदगी अपने आपसे झूट बोलने और फिर उसे सच बनाने में गुज़री है। उफ़ कितना तकलीफ़देह ग़ैर-फ़ित्री और ग़ैर-इंसानी काम था। “मैंने एक ख़्वाहिश को मारा था लेकिन मुझे ये मालूम नहीं था कि इस क़त्ल के बाद मुझे और बहुत से ख़ून करने पड़ेंगे। मैं समझता था कि एक मसाम बंद करदेने से क्या होगा... लेकिन मुझे इसकी ख़बर नहीं थी कि मुझे अपने जिस्म के सारे दरवाज़े बंद करदेने पड़ेंगे... सकीना! ये मैं जो कुछ कह रहा हूँ फ़लसफ़ियाना बकवास है, सीधी बात ये है कि मैं अपना कैरेक्टर ऊंचा करता रहा और ख़ुद इंतिहाई पस्तियों के दलदल में धंसता चला गया। “मैं मर जाऊंगा और ये कैरेक्टर... ये बेरंग फुरेरा मेरी ख़ाक पर उड़ता रहेगा। वो तमाम लड़कियां जिन्हें में स्कूल में पढ़ाया करता था... कभी मुझे याद करेंगी तो कहेंगी एक फ़रिश्ता था जो इंसानों में चला आया था। तुम भी मेरी नेकियों को नहीं भूलोगी... लेकिन हक़ीक़त ये है कि जबसे तुम इस घर में आई हो... एक लम्हा भी ऐसा नहीं गुज़रा जब मैंने तुम्हारी जवानी को दुज़दीदा निगाहों से न देखा हो। मैंने तसव्वुर में कई बार तुम्हारे होंटों को चूमा है... कई बार मैंने तुम्हारी बांहों पर अपना सर रखा है... लेकिन हर बार मुझे उन तस्वीरों को पुरज़े पुरज़े करना पड़ा। फिर उन पुर्ज़ों को जला कर मैंने राख बनाई कि उनका नाम-ओ-निशान तक बाक़ी न रहे। मैं मर जाऊंगा... काश मुझ में इतनी हिम्मत होती कि अपने इस ऊंचे कैरेक्टर को एक लंबे बांस पर लंगूर की तरह बिठा देता और डुगडुगी बजा कर लोगों को इकट्ठा करता कि आओ देखो और इबरत हासिल करो।” इस वाक़िया के बाद प्रोफ़ेसर सिर्फ़ पाँच रोज़ ज़िंदा रहा। सकीना का बयान है कि मरने से पहले वो बहुत ख़ुश था... जब वो आख़िरी सांस ले रहा था तो उसने सकीना से सिर्फ़ इतना कहा, “सकीना! मैं लालची नहीं... ज़िंदगी के ये आख़िरी पाँच दिन मेरे लिए बहुत हैं... मैं तुम्हारा शुक्र गुज़ार हूँ।