रौशनी

आई.सी.एस. पास कर के हिन्दोस्तान आया तो मुझे मुमालिक-ए-मुत्तहिदा के एक कोहिस्तानी इलाक़े में एक सब डिवीज़न का चार्ज मिला। मुझे शिकार का बहुत शौक़ था और कोहिस्तानी इलाक़े में शिकार की क्या कमी। मेरी दिली मुराद बर आई। एक पहाड़ के दामन में मेरा बंगला था। बँगले ही पर कचहरी कर लिया करता था। अगर कोई शिकायत थी तो ये कि सोसाइटी न थी इसलिए सैर-ओ-शिकार और अख़बारात-ओ-रसाइल से कमी को पूरा किया करता था। अमरीका और यूरोप के कई अख़बार और रिसाले आते थे। उनके मज़ामीन की शगुफ़्तगी और जिद्दत और ख़याल आराई के मुक़ाबले में हिन्दुस्तानी अख़बार और रिसाले भला क्या जचते! सोचता था वो दिन कब आएगा कि हमारे यहां भी ऐसे ही शानदार रिसाले निकलेंगे।
बहार का मौसम था। फागुन का महीना। मैं दौरे पर निकला और लनधवार के थाने का मुआइना कर के गजन पुर के थाने को चला। कोई अठारह मील की मुसाफ़त थी मगर मंज़र निहायत सुहाना। धूप में किसी क़दर तेज़ी थी मगर ना-ख़ुश-गवार नहीं। हवा में भीनी ख़ुशबू थी। आम के दरख़्तों पर बौर आ गये थे और कोयल कूकने लगी थी। कंधे पर बंदूक़ रख ली थी कि कोई शिकार मिल जाये तो लेता चलूं कुछ अपनी हिफ़ाज़त का भी ख़याल था। क्योंकि इन दिनों जाबजा डाके पड़ रहे थे। मैंने घोड़े की गर्दन सहलाई और कहा, चलो बेटा चलो। ढाई घंटे की दौड़ है। शाम होते होते गजनपुर पहुंच जाएंगे और साथ के मुलाज़िम पहले ही रवाना कर दिये गये थे।

जाबजा काश्तकार खेतों में काम करते नज़र आते थे। रबी की फ़सल तैयार हो चली थी। ऊख और ख़रबूज़े के लिए ज़मीन तैयार की जा रही थी। ज़रा-ज़रा से मुज़रए’थे। वही बावा-आदम के ज़माने के बोसीदा हल, वही अफ़सोसनाक जिहालत, वही शर्मनाक नीम बरहनगी, इस क़ौम का ख़ुदा ही हाफ़िज़ है। गर्वनमेंट लाखों रुपये ज़राअ’ती इस्लाहों पर सर्फ़ करती है। नई नई तहक़ीक़ातें और ईजादें होती हैं। डायरेक्टर, इन्सपेक्टर सब मौजूद और हालत में कोई इस्लाह, कोई तग़य्युर नहीं। ता’लीम का तूफ़ान बेतमीज़ी बरपा है। यहां मदरसों में कुत्ते लोटते हैं। जब मदरसे में पहुंच जाता हूँ तो मुदर्रिस को खाट पर नीम ग़ुनूदगी की हालत में लेटे पाता हूँ। बड़ी दवा दोश से दस-बीस लड़के जोड़े जाते हैं। जिस क़ौम पर जुमूद ने इस हद तक ग़लबा कर लिया हो उसका मुस्तक़बिल इंतिहा दर्जा मायूस कुन है। अच्छे अच्छे ता’लीम-याफ़्ता आदमियों को सलफ़ की याद में आँसू बहाते देखता हूँ माना कि एशिया के जज़ाइर में आर्यन मुबल्लिग़ों ने मज़हब की रूह फूंकी थी। ये भी मान लिया कि किसी ज़माने में आस्ट्रेलिया भी आर्यन तहज़ीब का ममनून था। लेकिन इस सलफ़ पर्वरी से क्या हासिल। आज तो मग़रिब दुनिया का मशाल-ए-हिदायत है। नन्हा सा इंग्लैंड निस्फ़ कुर्रा-ए-ज़मीन पर हावी है। अपनी सनअत-ओ-हिर्फ़त की बदौलत बे-शक मग़रिब ने दुनिया को एक नया पैग़ाम-ए-अ’मल अता किया है और जिस क़ौम में इस पैग़ाम पर अ’मल करने की क़ुव्वत नहीं है, उसका मुस्तक़बिल तारीक है। जहां आज भी नीम बरहना गोशा नशीन फ़क़ीरों की अ’ज़मत के राग अलापे जाते हैं। आज भी शजरो हजर की इ’बादत होती है। जहां आज भी ज़िंदगी के हर एक शो’बे में मज़हब घुसा हुआ है। उसकी अगर ये हालत है तो ता’ज्जुब का कोई मुक़ाम नहीं।
मैं उन्हीं तसव्वुरात में डूबा हुआ चला जा रहा था। दफ़्अ’तन ठंडी हवा का एक झोंका जिस्म में लगा तो मैंने सर ऊपर उठाया। मशरिक़ की जानिब मंज़र गर्द-आलूद हो रहा था, उफ़ुक़ गर्द-ओ-ग़ुबार के पर्दे में छुप गया था, आंधी की अ’लामत थी। मैंने घोड़े को तेज़ किया लेकिन लम्हा ब लम्हा ग़ुबार का पर्दा वसीअ’ और बसीत होता जाता था और मेरा रास्ता भी मशरिक़ ही की जानिब था। गोया मैं यका ओ तन्हा तूफ़ान का मुक़ाबला करने दौड़ा जा रहा था। हवा तेज़ हो गई, वो पर्द-ए-ग़ुबार सर पर आ पहुंचा और दफ़्अ’तन मैं गर्द के समुंदर में डूब गया। हवा इतनी तुंद थी कि कई बार मैं घोड़े से गिरते-गिरते बचा। वो सरसराहाट, और गड़ गड़ाहट थी कि अल-अमान गोया फ़ित्रत ने आंधी में तूफ़ान की रूह डाल दी है। दस-बीस हज़ार तोपें एक साथ छूटतीं तब भी इतनी हौलनाक सदा न पैदा होती। मारे गर्द के कुछ न सूजता था यहां तक कि रास्ता भी नज़र न आता था। उफ़ एक क़यामत थी जिसकी याद से आज भी कलेजा काँप जाता है। मैं घोड़े की गर्दन से चिमट गया और उसके अयालों में मुँह छुपा लिया। संग-रेज़े गर्द के साथ उड़ कर मुँह पर इस तरह लगते थे, जैसे कोई कंकरियों को पिचकारी में भर कर मार रहा हो। एक अजीब दहश्त मुझ पर मसल्लत हो गई। किसी दरख़्त के उखड़ने की आवाज़ कानों में आ जाती तो पेट में मेरी आँतें तक सिमट जातीं, कहीं कोई दरख़्त पहाड़ से मेरे ऊपर गिरे तो यहीं रह जाऊं। तूफ़ान में ही बड़े बड़े तोदे भी तो टूट जाते हैं कोई ऐसा तोदा लुढ़कता हुआ आजाये तो बस ख़ात्मा है, हिलने की भी तो गुंजाइश नहीं। पहाड़ी रास्ता कुछ सुझाई देता नहीं। एक क़दम दाहिने बाएं हो जाऊं तो एक हज़ार फुट गहरे खड्डे में पहुंच जाऊं। अजीब हैजान में मुब्तला था। कहीं शाम तक तूफ़ान जारी रहा तो मौत ही है। रात को कोई दरिन्दा आकर सफ़ाया कर देगा। दिल पर बे-इख़्तियार रिक़्क़त का ग़लबा हुआ। मौत भी आई तो इस हालत में कि लाश का भी पता न चले। ओफ़्फ़ो! कितनी ज़ोर से बिजली चमकी है कि मालूम हुआ एक नेज़ा सीने के अंदर घुस गया।

दफ़्अ’तन झन-झन की आवाज़ सुनकर मैं चौंक पड़ा। इस अरराहट में भी झन-झन की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी जैसे कोई सांडनी दौड़ी आरही हो। सांडनी पर कोई सवार तो होगा ही मगर उसे रास्ता क्यों सूझ रहा है। कहीं सांडनी एक क़दम भी इधर उधर हो जाये तो बच्चा तहतुस्सरा में पहुंच जाएं। कोई ज़मींदार होगा मुझे देखकर शायद पहचाने भी नहीं, चेहरे पर मनों गर्द पड़ी हुई है मगर है बला का हिम्मत वाला।
एक लम्हे में झन-झन की आवाज़ क़रीब आगई। फिर मैंने देखा कि एक जवान औरत सर पर एक खाँची रखे क़दम बढ़ाती हुई चली आरही है। एक गज़ के फ़ासले से भी उसका सिर्फ़ धुँदला सा अ’क्स नज़र आया। वो औरत हो कर अकेली मर्दानावार चली जा रही है न आंधी का ख़ौफ़ है न टूटने वाले दरख़्तों का अंदेशा न चट्टानों के गिरने का ग़म, गोया ये भी कोई रोज़मर्रा का मा’मूली वाक़िया है। मुझे दिल में ग़ैरत का एहसास कभी इतना शदीद न हुआ था।

मैंने जेब से रूमाल निकाल कर मुँह पोंछा और उससे बोला, “ओ औरत! गजनपुर यहां से कितनी दूर है?”
मैंने पूछा तो बुलंद लहजे में, मगर आवाज़ दस गज़ न पहुंची। औरत ने कोई जवाब न दिया। शायद उसने मुझे देखा ही नहीं।

मैंने चीख़ कर पुकारा, “ओ औरत! ज़रा ठहर जा। गजनपुर यहां से कितनी दूर है?”
औरत रुक गई। उसने मेरे क़रीब आकर, मुझे देखकर, ज़रा सर झुका कर कहा, “कहाँ जाओगे?”

“गजनपुर कितनी दूर है?”
“चले आओ। आगे हमारा गांव है उसके बाद गजनपुर है।”

“तुम्हारा गांव कितनी दूर है?”
“वो क्या आगे दिखाई देता है।”

“तुम इस आंधी में कहीं रुक क्यों नहीं गईं?”
“छोटे-छोटे बच्चे घर पर हैं। कैसे रुक जाती। मर्द तो भगवान के घर चला गया।” आंधी का ऐसा ज़बरदस्त रेला आया कि मैं शायद दो तीन क़दम आगे खिसक गया। गर्द-ओ-ग़ुबार की एक धूँकनी सी मुँह पर लगी। उस औरत का क्या हश्र हुआ मुझे ख़बर नहीं। मैं फिर वहीं खड़ा रह गया फ़लसफ़े ने कहा उस औरत के लिए ज़िंदगी में क्या राहत है। कोई टूटा फूटा झोंपड़ा होगा, दो-तीन फ़ाक़ाकश बच्चे। बेकसी में मौत का क्या ग़म। मौत तो उसे बाइ’स-ए-नजात होगी। मेरी हालत और है। ज़िंदगी अपनी तमाम दिलफ़रेबियों और रंगीनियों के साथ मेरी नाज़-बरदारी कर रही है। हौसले हैं, इरादे हैं। मैं उसे क्यूँ-कर ख़तरे में डाल सकता हूँ। मैंने फिर घोड़े के अयालों में मुँह छुपा लिया। शुतुरमुर्ग़ की तरह जो ख़तरे से बचने की कोई राह न पा कर बालों में सर छुपा लेता है।

वो आंधी की आख़िरी सांस थी। इसके बाद बतदरीज ज़ोर कम होने लगा। यहां तक कि कोई पंद्रह मिनट में मतला साफ़ हो गया। न गर्द-ओ-ग़ुबार का निशान था न हवा के झोंकों का। हवा में एक फ़हर्त बख्श ख़ुनकी आगई थी। अभी मुश्किल से पाँच बजे होंगे। सामने एक पहाड़ी थी उसके दामन में एक छोटा सा मौज़ा था। मैं जूं ही उस गांव में पहुंचा। वही औरत एक बच्चे को गोद में लिये मेरी तरफ़ आ रही थी मुझे देखकर उसने पूछा, “तुम कहाँ रह गये थे? मैं डरी कि तुम रस्ता न भूल गये हो। तुम्हें ढ़ूढ़ने जा रही थी।”
मैंने उसकी इन्सानियत से मुतास्सिर हो कर कहा, “मैं इसके लिए तुम्हारा बहुत मम्नून हूँ। आंधी का ऐसा रेला आया कि मुझे रस्ता न सूझा। मैं वहीं खड़ा हो गया। यही तुम्हारा गांव है? यहां से गजनपुर कितनी दूर होगा?”

बस कोई धाप भर समझ लो। रास्ता बिल्कुल सीधा है कहीं दाहिने-बाएं मुड़ियो नहीं। सूरज डूबते डूबते पहुंच जाओगे।”
“यही तुम्हारा बच्चा है।”

“नहीं एक और इससे बड़ा है, जब आंधी आई तो दोनों नंबरदार की चौपाल में जाकर बैठे थे कि झोंपड़िया कहीं उड़ न जाये। जब से आई हूँ ये मेरी गोद से नहीं उतरता। कहता है तू फिर कहीं भाग जाएगी। बड़ा शैतान है। लड़कों में खेल रहा है। मेहनत मज़दूरी करती हूँ बाबू जी! इनको पालना तो है अब मेरे कौन बैठा हुआ है जिस पर टेक करूँ। घास लेकर बेचने गई थी। कहीं जाती हूँ मन इन बच्चों में लगा रहता है।”
मेरा दिल इतना असर पज़ीर तो नहीं है, लेकिन इस दहक़ान औरत के बेलौस अंदाज़-ए-गुफ़्तगू, उस की सादगी और जज़्बा-ए-मादरी ने मुझ पर तस्ख़ीर का सा अ’मल किया उसके हालात से मुझे गूना दिलचस्पी हो गई। पूछा, “तुम्हें बेवा हुए कितने दिन हो गये।”

औरत की आँखें नम हो गईं। अपने आंसुओं को छुपाने के लिए बच्चे के रुख़्सार को अपनी आँखों से लगा कर बोली:
“अभी तो कुल छः महीने हुए हैं बाबू जी। भगवान की मर्ज़ी में आदमी का क्या। बस भले चंगे हल लेकर लौटे, एक लोटा पानी पिया, क़ै हुई। बस आँखें बंद हो गईं। न कुछ कहा न सुना। मैं समझी थके हैं, सो रहे हैं। जब खाना खाने को उठाने लगी तो बदन ठंडा। तब से बाबू जी! घास छील कर पेट पालती हूँ और बच्चों को खिलाती हूँ। खेती मेरे मान की न थी। बैल बधिए बेच कर उन्हीं के क्रिया करम में लगा दिये। भगवान तुम्हारे इन दोनों गुलामों को जिला दे मेरे लिए यही बहुत हैं।”

मैं मौक़ा और महल समझता हूँ और नफ़्सियात में भी दख़ल रखता हूँ लेकिन उस वक़्त मुझ पर ऐसी रिक़्क़त तारी हुई कि मैं आब-दीदा हो गया और जेब से पाँच रुपये निकाल कर उस औरत की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा, मेरी तरफ़ से ये बच्चों के मिठाई खाने के लिए ले लो, मुझे मौक़ा मिला तो फिर कभी आऊँगा।” ये कह कर मैंने बच्चे के रुख़्सारों को उंगली से छू दिया।
माँ एक क़दम पीछे हट कर बोली, “नहीं बाबूजी, ये रहने दीजिए। मैं ग़रीब हूँ, लेकिन भिकारन नहीं हूँ।”

“ये भीक नहीं है बच्चों की मिठाई खाने के लिए है।”
“नहीं बाबूजी।”

“मुझे अपना भाई समझ कर ले लो।”
“नहीं बाबूजी। जिससे ब्याह हुआ उसकी इज़्ज़त तो मेरे ही हाथ है। भगवान तुम्हारा भला करें। अब चले जाओ, नहीं देर हो जाएगी।”

मैं दिल में ख़फ़ीफ़ इतना कभी न हुआ था। जिन्हें मैं जाहिल, कोर बातिन, बे-ख़बर समझता था उसी तबक़े की एक मा’मूली औरत में ये ख़ुद्दारी, ये फ़र्ज़ शनासी, ये तवक्कुल! अपने ज़ो’फ़ के एहसास से मेरा दिल जैसे पामाल हो गया। अगर ता’लीम फ़िल-अस्ल तहज़ीब-ए-नफ़्स है और महज़ आ’ला डिग्रियां नहीं, तो ये औरत तालीम की मे’राज पर पहुंची हुई है।
मैंने नादिम हो कर नोट जेब में रख लिया और घोड़े को एड़ लगाते हुए पूछा, “तुम्हें इस आंधी में ज़रा सा डर न मा’लूम होता था?”

औरत मुस्कुराई, “डर किस बात का? भगवान तो सभी जगह हैं। अगर वो मारना चाहें तो क्या यहां नहीं मार सकते? मेरा आदमी तो घर आकर बैठे-बैठे चल दिया। आज वो होता तो तुम इस तरह गजनपुर अकेले न जा पाते। जाकर तुम्हें पहुंचा आता। थोड़ी ख़िदमत करता।”
घोड़ा उड़ा। मेरा दिल इससे ज़्यादा तेज़ी से उड़ रहा था जैसे कोई मुफ़्लिस सोने का डल्ला पाकर दिल में एक तरह की परवाज़ का एहसास करता है वही हालत मेरी थी। इस दहक़ान औरत ने मुझे वो ता’लीम दी जो फ़लसफ़ा और माबा’द-उल-तिब्ईयात के दफ़्तरों से भी न हासिल हुई थी। मैं इस मुफ़लिस की तरह उस सोने के डले को गिरह में बाँधता हुआ एक ग़ैर मतरक्क़बा नेअ’मत के ग़ुरूर से मसरूर, इस अंदेशे से ख़ाइफ़ कि कहीं ये असर दिल से मिट न जाये, उड़ा चला जाता था। बस यही फ़िक्र थी कि इस पारा-ए-ज़र को दिल के किसी गोशे में छुपा लूं जहां किसी हरीस की इस पर निगाह न पड़े।

(३)
गजनपुर अभी पाँच मील से कम न था। रास्ता निहायत पेचीदा बीहड़ बे-बर्ग व बार। घोड़े को रोकना पड़ा। तेज़ी में जान का ख़तरा था। आहिस्ता-आहिस्ता सँभलता चला जाता था कि आसमान पर अब्र घिर आया। कुछ-कुछ तो पहले ही से छाया हुआ था। पर अब उसने एक अ’जीब सूरत इख़्तियार की। बर्क़ की चमक और रा’द की गरज शुरू हुई। फिर उफ़ुक़ मशरिक़ की तरफ़ से ज़र्द रंग के अब्र की इस नई तह इस मटियाले रंग पर ज़र्द लेप करती हुई तेज़ी से ऊपर की जानिब दौड़ती नज़र आई। मैं समझ गया ओले हैं। फागुन के महीने में इस रंग के बादल और गरज की ये मुहीब गड़ गड़ाहट ज़ाला बारी की अ’लामत है। घटा सर पर बढ़ती चली जाती थी यकायक सामने एक कफ़-ए-दस्त मैदान आ गया। जिसके परले सिरे पर गजनपुर के ठाकुरद्वारे का कलस साफ़ नज़र आरहा था। कहीं किसी दरख़्त की भी आड़ न थी लेकिन मेरे दिल में मुतलक़ कमज़ोरी न थी। ऐसा महसूस होता था कि मुझ पर किसी का साया है, जो मुझे हर आफ़त, हर गज़ंद से महफ़ूज़ रखेगा।

अब्र की ज़र्दी हर लम्हा बढ़ती जाती थी। शायद घोड़ा इस ख़तरे को समझ रहा था। वो बार-बार हिनहिनाता था, और उड़ कर ख़तरे से बाहर निकल जाना चाहता था। मैंने भी देखा रास्ता साफ़ है। लगाम ढीली कर दी। घोड़ा उड़ा। मैं उसकी तेज़ी का लुत्फ़ उठा रहा था, दिल में ख़ौफ़ का मुतलक़ एहसास न था।
एक मील निकल गया हूँगा कि एक रपट आ पड़ी। पहाड़ी नदी थी जिसके पेटे में कोई पच्चास गज़ लंबी रपट बनी हुई थी। पानी की हल्की धार रपट पर से अब भी बह रही थी। रपट के दोनों तरफ़ पानी जमा था। मैंने देखा एक अंधा लाठी टेकता हुआ रपट से गुज़र रहा था। वो रपट के एक किनारे से इतना क़रीब था, मैं डर रहा था कहीं गिर न पड़े। अगर पानी में गिरा तो मुश्किल होगी। क्योंकि वहां पानी गहरा था। मैंने चिल्ला कर कहा, “बुड्ढे और दाहने को हो जा।”

बुड्ढा चौंका और घोड़े के टापों की आवाज़ सुनकर शायद डर गया। दाहिने तो नहीं हुआ और बाएं तरफ़ हो लिया और फिसल कर पानी में गिर पड़ा। उसी वक़्त एक नन्हा सा ओला मेरे सामने गिरा दोनों मुसीबतें एक साथ नाज़िल हुईं।
नदी के उस पार एक मंदिर था। उसमें बैठने की जगह काफ़ी थी। मैं एक मिनट में वहां पहुंच सकता था लेकिन ये नया उक़दा सामने आ गया। क्या इस अंधे को मरने के लिए छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए भागूं? हमिय्यत ने उसे गवारा न किया ज़्यादा पस-ओ-पेश का मौक़ा न था, मैं फ़ौरन घोड़े से कूदा और कई ओले मेरे चारों तरफ़ गिरे। मैं पानी में कूद पड़ा। हाथी डुबाऊ पानी था। रपट के लिए जो बुनियाद खोदी गई थी वो ज़रूरत से ज़्यादा चौड़ी थी। ठेकेदार ने दस फुट चौड़ी रपट तो बना दी मगर ख़ुदी हुई मिट्टी बराबर न की। बुड्ढा उसी गड्ढे में गिरा था। मैं एक ग़ोता खा गया लेकिन तैरना जानता था कोई अंदेशा न था। मैंने दूसरी डुबकी लगाई और अंधे को बाहर निकाला। इतनी देर में वो सेरों पानी पी चुका था। जिस्म बे-जान हो रहा था। मैं उसे लिये बड़ी मुश्किल से बाहर निकला देखा तो घोड़ा भाग कर मंदिर में जा पहुंचा है। इस नीम-जाँ लाश को लिये हुए एक फ़र्लांग चलना आसान न था। ऊपर ओले तेज़ी से गिरने लगे थे। कभी सर पर कभी शाने पर कभी पीठ में गोली सी लग जाती थी। मैं तिलमिला उठा था लेकिन उस लाश को सीने से लगाए मंदिर की तरफ़ लपका जाता था। मैं अगर उस वक़्त अपने दिल के जज़्बात बयान करूँ तो शायद ख़याल हो मैं ख़्वाह-मख़्वाह तअ’ल्ली कर रहा हूँ। अच्छे काम करने में एक ख़ास मसर्रत होती है मगर मेरी ख़ुशी एक दूसरी ही क़िस्म की थी। वो फ़ातिहाना मसर्रत थी। मैंने अपने ऊपर फ़तह पाई थी। आज से पहले ग़ालिबन मैं उस अंधे को पानी में डूबते देखकर या तो अपनी राह चला जाता या पुलिस को रिपोर्ट करता। ख़ासकर ऐसी हालत में जब कि सर पर ओले पड़ रहे हों मैं कभी पानी में न घुसता। हर लहज़ा ख़तरा था कि कोई बड़ा सा ओला सर पर गिर कर अ’ज़ीज़ जान का ख़ात्मा न कर दे मगर मैं ख़ुश था क्योंकि आज मेरी ज़िंदगी में एक नए दौर का आग़ाज़ था।

मैं मंदिर में पहुंचा तो सारा जिस्म ज़ख़्मी हो रहा था। मुझे अपनी फ़िक्र न थी। एक ज़माना हुआ मैंने फ़ौरी इमदाद (फ़र्स्ट ऐड) की मश्क़ की थी वो उस वक़्त काम आई। मैंने आध् घंटे में उस अंधे को उठा कर बिठा दिया। इतने में दो आदमी अंधे को ढूंढते हुए मंदिर में आ पहुंचे। मुझे उसकी तीमारदारी से नजात मिली। ओले निकल गये थे। मैंने घोड़े की पीठ ठोंकी। रूमाल से साज़ को साफ़ किया और गजनपुर चला। बे-ख़ौफ़, बे-ख़तर दिल में एक ग़ैबी ताक़त महसूस करता हुआ। उसी वक़्त अंधे ने पूछा, “तुम कौन हो भाई, मुझे तो कोई महात्मा मालूम होते हो।”
मैंने कहा, “तुम्हारा ख़ादिम हूँ।”

“तुम्हारे सर पर किसी देवता का साया मालूम होता है।”
“हाँ एक देवी का साया है।”

“वो कौन देवी है?”
“वो देवी पीछे के गांव में रहती है।”

“तो क्या वो औरत है?”
“नहीं मेरे लिए तो वो देवी है।”

(प्रेम चंद के सौ अफ़साने तर्तीब-ओ-इंतिख़ाब प्रेम गोपाल मित्तल,स 907)


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