साहिब-ए-करामात

चौधरी मौजू बूढ़े बरगद की घनी छाँव के नीचे खड़ी चारपाई पर बड़े इत्मिनान से बैठा अपना चिमोड़ा पी रहा था। धुएँ के हल्के हल्के बुक़े उसके मुँह से निकलते थे और दोपहर की ठहरी हुई हवा में होले-होले गुम हो जाते थे।
वो सुबह से अपने छोटे से खेत में हल चलाता रहा था और अब थक गया था। धूप इस क़दर तेज़ थी कि चील भी अपना अंडा छोड़ दे मगर अब वो इत्मिनान से बैठा अपने चिमोड़े का मज़ा ले रहा था जो चुटकियों में उसकी थकन दूर कर देता था।

उसका पसीना ख़ुश्क हो गया था। इसलिए ठहरी हवा उसे कोई ठंडक नहीं पहुंचा रही थी मगर चिमोड़े का ठंडा-ठंडा लज़ीज़ धुआँ उसके दिल-ओ-दिमाग़ में ना-क़ाबिल-ए-बयान सुरूर की लहरें पैदा कर रहा था।
अब वक़्त हो चुका था कि घर से उसकी इकलौती लड़की जीनां रोटी लस्सी लेकर आ जाए। वो ठीक वक़्त पर पहुंच जाती थी। हालाँकि घर में उसका हाथ बटाने वाला और कोई भी नहीं था। उसकी माँ थी जिसको दो साल हुए मौजू ने एक तवील झगड़े के बाद इंतिहाई ग़ुस्से में तलाक़ दे दी थी।

उसकी जवान इकलौती बेटी जीनां बड़ी फ़रमाँबरदार लड़की थी। वो अपने बाप का बहुत ख़याल रखती थी। घर का काज जो इतना ज़्यादा नहीं था, बड़ी मुस्तइदी से करती थी कि जो ख़ाली वक़्त मिले उसमें चर चख़ा चलाए और पौनियां काते। या अपनी सहेलियों के साथ जो गिनती की थीं इधर-उधर की ख़ुश गप्पियों में गुज़ार दे।
चौधरी मौजू की ज़मीन वाजिबी थी मगर उसके गुज़ारे के लिए काफ़ी थी। गाँव बहुत छोटा था। एक दूर उफ़्तादा जगह पर जहाँ से रेल का गुज़र नहीं था। एक कच्ची सड़क थी जो उसे दूर एक बड़े गांव के साथ मिलाती थी। चौधरी मौजू हर महीने दो मर्तबा अपनी घोड़ी पर सवार हो कर उस गाँव में जाता था। जिसमें दो तीन दुकानें थीं और ज़रूरत की चीज़ें ले आता था।

पहले वो बहुत ख़ुश था। उसको कोई ग़म नहीं था। दो-तीन बरस उसको इस ख़याल ने अलबत्ता ज़रूर सताया था कि उसके कोई नरीना औलाद नहीं होती, मगर फिर वो ये सोच कर शाकिर हो गया कि जो अल्लाह को मनज़ूर होता है वही होता है... मगर अब जिस दिन से उसने अपनी बीवी को तलाक़ दे कर मैके रुख़सत कर दिया था। उसकी ज़िंदगी सूखा हुआ नेचा सी बन के रह गई थी। सारी तरावत जैसे उसकी बीवी अपने साथ ले गई थी।
चौधरी मौजू मज़हबी आदमी था। हालाँकि उसे अपने मज़हब के मुतअल्लिक़ सिर्फ़ दो-तीन चीज़ों ही का पता था कि ख़ुदा एक है जिसकी परस्तिश लाज़िमी है। मोहम्मद उसके रसूल हैं, जिनके अहकाम मानना फ़र्ज़ है और क़ुरान-ए-पाक ख़ुदा का कलाम है जो मोहम्द पर नाज़िल हुआ और बस।

नमाज़-रोज़े से वो बेनियाज़ था। गांव बहुत छोटा था जिसमें कोई मस्जिद नहीं थी। दस-पंद्रह घर थे। वो भी एक दूसरे से दूर दूर। लोग अल्लाह-अल्लाह करते थे। उनके दिल में उस ज़ात-ए-पाक का ख़ौफ़ था मगर इससे ज़्यादा और कुछ नहीं था।
क़रीब-क़रीब हर घर में क़ुरआन मौजूद था। मगर पढ़ना कोई भी नहीं जानता था। सबने उसे एहतरामन जुज़दान में लपेट कर किसी ऊंचे ताक़ में रख छोड़ा था। उसकी ज़रूरत सिर्फ़ उसी वक़्त पेश आती थी। जब किसी से कोई सच्ची बात कहलवानी होती थी या किसी काम के लिए हलफ़ उठाना होता था।

गाँव में मौलवी की शक्ल उसी वक़्त दिखाई देती थी जब किसी लड़के या लड़की की शादी होती थी। मर्ग पर जनाज़ा वग़ैरा वो ख़ुद ही पढ़ लेते थे, अपनी ज़बान में।
चौधरी मौजू ऐसे मौक़ों पर ज़्यादा काम आता था। उसकी ज़बान में असर था। जिस अंदाज़ से वो मरहूम की खूबियां बयान करता था और उसकी मग़्फ़िरत के लिए दुआ करता था, वो कुछ उसी का हिस्सा था।

पिछले बरस जब उसके दोस्त दीनू का जवान लड़का मर गया तो उसको क़ब्र में उतार कर उसने बड़े मुअस्सिर अंदाज़ में ये कहा था। हाय, क्या हशीन जवान लड़का था। थूक फेंकता था तो बीस गज़ दूर जाके गिरती थी। उसकी पेशाब की धार का तो आस-पास के किसी गांव-खेड़े में भी मुक़ाबला करने वाला मौजूद नहीं था और बीनी पकड़ने में तो जवाब नहीं था उसका... है घिसनी का नारा मारना और दो उंगलियों से यूं बीनी खोलता जैसे कुरते का बटन खोलते हैं।
दीनू यार, तुझ पर आज क़यामत का दिन है... तू कभी ये सदमा नहीं बर्दाश्त करेगा... यारो इसे मर जाना चाहिए था... ऐसा हशीं जवान लड़का... ऐसा ख़ूबसूरत गबरू जवान... नीयती सुनियारी जैसी सुंदर और हटीली नारी उसको क़ाबू करने के लिए तावीज़ धागे कराती रही... मगर भई मर्हबा है दीनू, तेरा लड़का लंगोट का पक्का रहा... ख़ुदा करे उसको जन्नत में सबसे ख़ूबसूरत हूर मिले और वहाँ भी लंगोट का पक्का रहे। अल्लाह मियां ख़ुश हो कर उस पर अपनी और रहमतें नाज़िल करेगा... आमीन।

ये छोटी सी तक़रीर सुन कर दस-बीस आदमी जिनमें दीनू भी शामिल था, ढारें मार-मार कर रो पड़ते थे। ख़ुद चौधरी मौजू की आँखों से आँसू रवाँ थे। मौजू ने जब अपनी बीवी को तलाक़ देना चाही थी तो उसने मौलवी बुलाने की ज़रूरत नहीं समझी थी। उसने बड़े बूढ़ों से सुन रखा था कि तीन मर्तबा तलाक़, तलाक़, तलाक़ कह दो तो क़िस्सा ख़त्म हो जाता है। चुनांचे उसने ये क़िस्सा इस तरह ख़त्म किया था। मगर दूसरे ही दिन उसको बहुत अफ़सोस हुआ था। बड़ी नदामत हुई थी कि उसने ये क्या ग़लती की। मियां-बीवी में झगड़े होते ही रहते हैं मगर तलाक़ तक नौबत नहीं आती। उसको दरगुज़र करना चाहिए था।
फाताँ उसको पसंद थी। गो वो अब जवान नहीं थी, लेकिन फिर भी उसको उसका जिस्म पसंद था। उसकी बातें पसंद थीं... और फिर वो उसकी जीनां की माँ थी... मगर अब तीर कमान से निकल चुका था जो वापस नहीं आ सकता था। चौधरी मौजू जब भी उसके मुतअल्लिक़ सोचता तो उसके चहेते चिमोड़े का धुवाँ उसके हलक़ में तल्ख़ घूँट बन-बन के जाने लगता।

जीनां ख़ूबसूरत थी। अपनी माँ की तरह इन दो बरसों में उसने एक दम बढ़ना शुरू कर दिया था और देखते-देखते जवान मटियार बन गई थी जिसके अंग-अंग से जवानी फूट-फूट के निकल रही थी। चौधरी मौजू को अब उसके हाथ पीले करने की फ़िक्र भी थी। यहां फिर उसकी फाताँ याद आती। ये काम वो कितनी आसानी से कर सकती थी।
खरी खाट पर चौधरी मौजू ने अपनी नशिस्त और अपना तहमद दुरुस्त करते हुए चिमोड़े से ग़ैरमामूली लंबा कश लिया और खांसने लगा। खांसने के दौरान में किसी की आवाज़ आई, “अस्सलामु-अलैकुम-व-रहमतुल्लाह-ओ-बरकातहु।”

चौधरी मौजू ने पलट कर देखा तो उसे सफ़ेद कपड़ों में एक दराज़-ए-रीश बुज़ुर्ग नज़र आए। उसने सलाम का जवाब दिया और सोचने लगा कि ये शख़्स कहाँ से आ गया है।
दराज़-ए-रीश बुज़ुर्ग की आँखें बड़ी बड़ी और बारोब थीं जिनमें सुरमा लगा हुआ था। लंबे-लंबे पट्टे थे। उनके और दाढ़ी के बाल खिचड़ी थे। सफ़ेद ज़्यादा और सियाह कम। सर पर सफ़ेद अमामा था। कांधे पर रेशम का काढ़ा हुआ बसंती रुमाल। हाथ में चांदी की मूठ वाला मोटा असा था। पांव में लाल खाल का नर्म-ओ-नाज़क जूता।

चौधरी मौजू ने जब उस बुज़ुर्ग का सरापा ग़ौर से देखा तो उसके दिल में फ़ौरन ही उसका एहतिराम पैदा हो गया। चारपाई पर से जल्दी जल्दी उठ कर वो उससे मुख़ातिब हुआ, “आप कहाँ से आए? कब आए?”
बुज़ुर्ग की कतरी हुई शरई लबों में मुस्कुराहट पैदा हुई, “फ़क़ीर कहाँ से आएंगे। उनका कोई घर नहीं होता। उनके आने का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं। उनके जाने का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं। अल्लाह तबारक ताला ने जिधर हुक्म दिया चल पड़े... जहां ठहरने का हुक्म हुआ वहीं ठहर गए।”

चौधरी मौजू पर इन अल्फ़ाज़ का बहुत असर हुआ। उसने आगे बढ़ कर बुज़ुर्ग का हाथ बड़े एहतिराम से अपने हाथों में लिया। चूमा, आँखों से लगाया। “चौधरी मौजू का घर आपका अपना घर है।”
बुज़ुर्ग मुस्कुराता हुआ खाट पर बैठ गया और अपने चांदी की मूठ वाले असा को दोनों हाथों में थाम कर उसपर अपना सर झुका दिया, “अल्लाह जल्ला-शानहु, को जाने तेरी कौन सी अदा पसंद आ गई कि अपने इस हक़ीर और आसी बंदे को तेरे पास भेज दिया।”

चौधरी मौजू ने ख़ुश हो कर पूछा, “तो मौलवी साहब आप उसके हुक्म से आए हैं?”
मौलवी साहब ने अपना झुका हुआ सर उठाया और किसी क़दर ख़श्म-आलूद लहजे में कहा, “तो क्या हम तेरे हुक्म से आए हैं... हम तेरे बंदे हैं या उसके जिसकी इबादत में हमने पूरे चालीस बरस गुज़ार कर ये थोड़ा बहुत रुतबा हासिल किया है।”

चौधरी मौजू काँप गया। अपने मख़्सूस गंवार लेकिन पुर-ख़ुलूस अंदाज़ में उसने मौलवी साहब से अपनी तक़्सीर माफ़ कराई और कहा, “मौलवी साहब, हम जैसे इंसानों से जिनको नमाज़ पढ़नी भी नहीं आती ऐसी ग़लतियाँ हो जाती हैं... हम गुनाहगार हैं। हमें बख़्शवाना और बख़्शना आपका काम है।”
मौलवी साहब ने अपनी बड़ी-बड़ी सुरमा लगी आँखें बंद कीं और कहा, “हम इसीलिए आए हैं।”

चौधरी मौजू ज़मीन पर बैठ गया और मौलवी साहब के पांव दबाने लगा। इतने में उसकी लड़की जीनां आ गई। उसने मौलवी साहिब को देखा तो घूंघट छोड़ लिया।
मौलवी साहब ने मुंदी आँखों से पूछा, “कौन है चौधरी मौजू?”

“मेरी बेटी मौलवी साहिब... जीनां!”
मौलवी साहब ने नीम वा आँखों से जीनां को देखा और मौजू से कहा, “हम फ़क़ीरों से क्या पर्दा है... उससे पूछो।”

“कोई पर्दा नहीं मौलवी साहब... पर्दा कैसा होगा।”
फिर मौजू जीनां से मुख़ातिब हुआ, “ये मौलवी साहब जीनां। अल्लाह के ख़ास बंदे... इनसे पर्दा कैसा। उठा ले अपना घूंघट!”

जीनां ने अपना घूंघट उठा लिया। मौलवी साहब ने अपनी सुरमा लगी नज़रें भर के उसकी तरफ़ देखा और मौजू से कहा, “तेरी बेटी ख़ूबसूरत है चौधरी मौजू!”
जीनां शर्मा गई। मौजू ने कहा, “अपनी माँ पर है मौलवी साहब!”

“कहाँ है इसकी माँ?” मौलवी साहब ने एक बार फिर जीनां की जवानी की तरफ़ देखा।
चौधरी मौजू सटपटा गया कि जवाब क्या दे।

मौलवी साहब ने फिर पूछा, “इसकी माँ कहाँ है चौधरी मौजू?”
मौजू ने जल्दी से कहा, “मर चुकी है जी!”

मौलवी साहब की नज़रें जीनां पर गड़ी थीं। उसका रद्द-ए-अमल भाँप कर उन्होंने मौजू से कड़क कर कहा, “तू झूट बोलता है।”
मौजू ने मौलवी साहब के पांव पकड़ लिए और नदामत भरी आवाज़ में कहा, “जी हाँ... जी हाँ... मैंने झूट बोला था... मुझे माफ़ कर दीजिए... मैं बड़ा झूटा आदमी हूँ... मैंने उसको तलाक़ दे दी थी मौलवी साहिब।”

मौलवी साहिब ने एक लंबी ‘हूँ’ की और नज़रें जीनां की चदरिया से हटालीं और मौजू से मुख़ातिब हुए, “तू बहुत बड़ा गुनाहगार है... क्या क़ुसूर था उस बेज़बान का?”
मौजू नदामत में ग़र्क़ था, “कुछ नहीं मालूम मौलवी साहब... मामूली सी बात थी जो बढ़ते-बढ़ते तलाक़ तक पहुंच गई... मैं वाक़ई गुनाहगार हूँ... तलाक़ देने के दूसरे दिन ही मैंने सोचा था कि मौजू तू ने ये क्या झक मारी... पर इस वक़्त क्या हो सकता था... चिड़ियां खेत चुग चुकी थीं... पछतावे से क्या हो सकता था मौलवी साहब।”

मौलवी साहब ने चांदी की मूठ वाला असा मौजू के कांधे पर रख दिया, “अल्लाह तबारक-ताला की ज़ात बहुत बड़ी है। वो बड़ा रहीम है, बड़ा करीम है... वो चाहे तो हर बिगड़ी बना सकता है... उसका हुक्म हुआ तो ये हक़ीर फ़क़ीर, ही तेरी निजात के लिए कोई रास्ता ढूंढ निकालेगा।”
मम्नून-ओ-तशक्कुर चौधरी मौजू मौलवी साहब की टांगों के साथ लिपट गया और रोने लगा। मौलवी साहिब ने जीनां की तरफ़ देखा। उसकी आँखों से भी अश्क रवाँ थे, “इधर आ लड़की।”

मौलवी साहब के लहजे में ऐसा तहक्कुम था जिसको रद्द करना जीनां के लिए ना-मुमकिन था।
रोटी और लस्सी एक तरफ़ रख कर वो खाट के पास चली गई। मौलवी साहब ने उसको बाज़ू से पकड़ा और कहा, “बैठ जा।”

जीनां ज़मीन पर बैठने लगी तो मौलवी साहिब ने उसका बाज़ू ऊपर खींचा, “इधर मेरे पास बैठ।”
जीनां सिमट कर मौलवी साहब के पास बैठ गई। मौलवी साहब ने उसकी कमर में हाथ दे कर उस को अपने क़रीब कर लिया और ज़रा दबा कर पूछा, “क्या लाई है तो हमारे खाने के लिए।”

जीनां ने एक तरफ़ हटना चाहा मगर गिरफ़्त मज़बूत थी। उसको जवाब देना पड़ा,“जी... जी रोटियां हैं। साग है और लस्सी।”
मौलवी साहब ने जीनां की पतली मज़बूत कमर अपने हाथ से एक बार फिर दबाई, “चल खोल खाना और हमें खिला।”

जीनां उठ कर चली गई तो मौलवी साहब ने मौजू के कंधे से अपना चांदी की मुठ वाला असा नन्ही सी ज़रब के बाद उठा लिया, “उठ मौजू... हमारे हाथ धुला।”
मौजू फ़ौरन उठा। पास ही कुँआं था। पानी लाया और मौलवी साहब के हाथ बड़े मुरीदाना तौर पर धुलाए, जीनां ने चारपाई पर खाना रख दिया।

मौलवी साहब सबका सब खा गए और जीनां को हुक्म दिया कि वो उनके हाथ धुलाए। जीनां उदूल-ए-हुक्मी नहीं कर सकती थी क्योंकि मौलवी साहब की शक्ल-ओ-सूरत और उनकी गुफ़्तुगू का अंदाज़ ही कुछ ऐसा तहक्कुम भरा था।
मौलवी साहब ने डकार लेकर बड़े ज़ोर से अल-हमदुलिल्लाह कहा। दाढ़ी पर गीला गीला हाथ फेरा। एक और डकार ली और चारपाई पर लेट गए और एक आँख बंद करके दूसरी आँख से जीनां की ढलकी हुई चदरिया की तरफ़ देखते रहे। उसने जल्दी जल्दी बर्तन समेटे और चली गई।

मौलवी साहब ने आँख बंद की और मौजू से कहा, “चौधरी, अब हम सोएँगे।”
चौधरी कुछ देर उनके पाँव दाबता रहा। जब उसने देखा कि वो सो गए हैं तो एक तरफ़ जा कर उस ने उपले सुलगाए और चिलम में तंबाकू भर के भूके पेट चिमोड़ा पीना शुरू कर दिया मगर वो ख़ुश था।

उसको ऐसा लगता था कि उसकी ज़िंदगी का कोई बहुत बड़ा बोझ दूर हो गया है। उसने दिल ही दिल में अपने मख़्सूस गंवार मगर मुख़लिस अंदाज़ में अल्लाह तआला का शुक्र अदा किया जिसने अपनी जनाब से मौलवी साहब की शक्ल में फ़रिश्त-ए-रहमत भेज दिया।
पहले उसने सोचा कि मौलवी साहब के पास ही बैठा रहे कि शायद उनको किसी ख़िदमत की ज़रूरत हो, मगर जब देर हो गई और वो सोते रहे, तो वो उठ कर अपने खेत में चला गया और अपने काम में मश्ग़ूल हो गया। उसको इस बात का क़तअन ख़याल नहीं था कि वो भूका है। उसको बल्कि इस बात की बेहद मसर्रत थी कि उसका खाना मौलवी साहब ने खाया और उसको इतनी बड़ी सआदत हुई।

शाम से पहले पहले जब वो खेत से वापस आया तो उसको ये देख कर बड़ा दुख हुआ कि मौलवी साहिब मौजूद नहीं। उसने ख़ुद को बड़ी लअनत मलामत की कि वो क्यूँ चला गया। उनके हुज़ूर बैठता रहता। शायद वो नाराज़ हो कर चले गए हैं और कोई बद-दुआ भी दे गए हों। जब चौधरी मौजू ने ये सोचा तो उसकी सादा रूह लरज़ गई। उसकी आँखों में आँसू आ गए।
उसने इधर-उधर मौलवी साहब को तलाश किया मगर वो न मिले। गहरी शाम हो गई, फिर भी उन का कोई सुराग़ न मिला। थक-हार कर अपने को दिल ही दिल में कोसता और लअनत मलामत करता। वो गर्दन झुकाए घर की तरफ़ जा रहा था कि उसे दो जवान लड़के घबराए हुए मिले।

चौधरी मौजू ने उनसे घबराहट की वजह पूछी तो उन्होंने पहले तो टालना चाहा, मगर फिर असल बात बता दी कि वो घर में दबा हुआ शराब का घड़ा निकाल कर पीने वाले थे कि एक नूरानी सूरत वाले बुज़ुर्ग एक दम वहां नमूदार हुए और बड़ी ग़ज़बनाक निगाहों से उनको देख कर ये पूछा कि वो ये क्या हरामकारी कर रहे हैं। जिस चीज़ को अल्लाह तबारक तआला ने हराम क़रार दिया है वो उसे पी कर इतना बड़ा गुनाह कर रहे हैं जिसका कोई कफ़्फ़ारा ही नहीं उन लोगों को इतनी जुरअत न हुई कि कुछ बोलें। बस सर पर पांव रख के भागे और यहाँ आके दम लिया।
चौधरी मौजू ने उन दोनों को बताया कि वो नूरानी सूरत वाले वाक़ई अल्लाह को पहुंचे हुए बुज़ुर्ग थे। फिर उसने अंदेशा ज़ाहिर किया कि अब जाने इस गांव पर क्या क़हर नाज़िल होगा। एक उसने उन को छोड़ चले जाने की बुरी हरकत की, एक उन्होंने कि हराम शय निकाल कर पी रहे थे।

“अब अल्लाह ही बचाए... अब अल्लाह ही बचाए मेरे बच्चो।” ये बड़बड़ाता चौधरी मौजू घर की जानिब रवाना हुआ। जीनां मौजूद थी, पर उसने उससे कोई बात न की और ख़ामोश खाट पर बैठ कर हुक़्क़ा पीने लगा। उसके दिल-ओ-दिमाग़ में एक तूफ़ान बरपा था। उसको यक़ीन था कि उस पर और गांव पर ज़रूर कोई ख़ुदाई आफ़त आएगी।
शाम का खाना तैयार था, जीनां ने मौलवी साहब के लिए भी पका रखा था। जब उसने अपने बाप से पूछा कि मौलवी साहब कहाँ हैं तो उसने बड़े दुख भरे लहजे में कहा, “गए... चले गए। उनका हम गुनहगारों के हाँ क्या काम!”

जीनां को अफ़सोस हुआ क्योंकि मौलवी साहब ने कहा था कि वो कोई ऐसा रास्ता ढूंढ निकालेंगे जिस से उसकी माँ वापस आ जाएगी... पर वो जा चुके थे... अब वो रास्ता ढूडने वाला कौन था। जीनां ख़ामोशी से पीढ़ी पर बैठ गई... खाना ठंडा होता रहा।
थोड़ी देर के बाद डेवढ़ी में आहट हुई। बाप बेटी दोनों चौंके। मौजू उठ के बाहर गया और चंद लमहात में मौलवी साहब और वो दोनों अंदर सहन में थे। दीय की धुँदली रोशनी में जीनां ने देखा कि मौलवी साहब लड़खड़ा रहे हैं। उनके हाथ में एक छोटा सा मटका है।

मौजू ने उनको सहारे दे कर चारपाई पर बिठाया। मौलवी साहिब ने घड़ा मौजू को दिया और लुकनत भरे लहजे में कहा, “आज ख़ुदा ने हमारा बहुत कड़ा इम्तिहान लिया... तुम्हारे गांव के दो लड़के शराब का घड़ा निकाल कर पीने वाले थे कि हम पहुंच गए... वो हमें देखते ही भाग गए।
हमको बहुत सदमा हुआ कि इतनी छोटी उम्र और इतना बड़ा गुनाह... लेकिन हमने सोचा कि इसी उम्र में तो इंसान रस्ते से भटकता है। चुनांचे हमने उनके लिए अल्लाह तबारक तआला के हुज़ूर में गिड़गिड़ा कर दुआ मांगी कि उनका गुनाह माफ़ किया जाये... जवाब मिला... जानते हो क्या जवाब मिला?”

मौजू ने लरज़ते हुए कहा, “जी नहीं!”
“जवाब मिला... क्या तू उनका गुनाह अपने सर लेता है। मैं ने अर्ज़ की, हाँ बारी तआला... आवाज़ आई, तो जा ये सारा घड़ा शराब का तू पी... हमने उन लड़कों को बख्शा!”

मौजू एक ऐसी दुनिया में चला गया जो उसके अपने तख़य्युल की पैदावार थी। उसके रोंगटे खड़े हो गए, “तो आपने पी?”
मौलवी साहब का लहजा और ज़्यादा लुकनत भरा हो गया, “हाँ पी... पी... उनका गुनाह अपने सर लेने के लिए पी... रब-उल-इज़्ज़त की आँखों में सुर्ख़रु होने के लिए पी... घड़े में और भी पड़ी है... ये भी हमें पीनी है... रख दे इसे सँभाल के और और देख इसकी एक बूँद इधर-उधर न हो।”

मौजू ने घड़ा उठा कर अंदर कोठरी में रख दिया और उसके मुँह पर कपड़ा बांध दिया। वापस सहन में आया तो मौलवी साहब जीनां से अपना सर दबवा रहे थे और उससे कह रहे थे, “जो आदमी दूसरों के लिए कुछ करता है, अल्लाह-जल्ला-शानहु, उससे बहुत ख़ुश होता है... वो इस वक़्त तुझसे भी ख़ुश है... हम भी तुझसे ख़ुश हैं।”
और इसी ख़ुशी में मौलवी साहब ने जीनां को अपने पास बिठा कर उसकी पेशानी चूम ली। उने उठना चाहा। मगर उनकी गिरफ़्त मज़बूत थी। मौलवी साहब ने उसको अपने गले से लगा लिया और मौजू से कहा, “चौधरी तेरी बेटी का नसीबा जाग उठा है।”

चौधरी सर-ता-पा मम्नून-ओ-मुतशक़्क़िर था, “ये सब आपकी दुआ है... आपकी मेहरबानी है।”
मौलवी साहब ने जीनां को एक मर्तबा फिर अपने सीने के साथ भिंचा, “अल्लाह मेहरबान सो कुल मेहरबान... जीनां हम तुझे एक वज़ीफ़ा बताएंगे, वो पढ़ा करना। अल्लाह हमेशा मेहरबान रहेगा।”

दूसरे दिन मौलवी साहब बहुत देर से उठे। मौजू डर के मारे खेतों पर न गया। सहन में उनकी चारपाई के पास बैठा रहा। जब वो उठे तो उनको मिस्वाक, नहलाया धुलाया और उनके इरशाद के मुताबिक़ शराब का घड़ा ला कर उनके पास रख दिया।
मौलवी साहब ने कुछ पढ़ा। घड़े का मुँह खोल कर उसमें तीन बार फूंका और दो-तीन कटोरे चढ़ा गए। ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। कुछ पढ़ा और बुलंद आवाज़ में कहा, “हम तेरे हर इम्तिहान में पूरे उतरेंगे मौला।” फिर वो चौधरी से मुख़ातब हुए, “मौजू जा... हुक्म मिला है अभी जा और अपनी बीवी को ले आ... रास्ता मिल गया है हमें।”

मौजू बहुत ख़ुश हुआ। जल्दी जल्दी उसने घोड़ी पर ज़ीन कसी और कहा कि वो दूसरे रोज़ सुबह-सवेरे पहुंच जाएगा। फिर उसने जीनां से कहा कि वो मौलवी साहब की हर आसाइश का ख़याल रखे और ख़िदमत-गुज़ारी में कोई कसर उठा न रखे।
जीनां बर्तन मांझने में मश्ग़ूल हो गई। मौलवी साहब चारपाई पर बैठे उसे घूरते और शराब के कटोरे पीते रहे। इसके बाद उन्होंने जेब से मोटे-मोटे दानों वाली तस्बीह उठाई और फेरना शुरू कर दी। जब जीनां काम से फ़ारिग़ हो गई तो उन्हों ने उससे कहा, “जीनां देखो... वज़ू करो।”

जीनां ने बड़े भोलपन से जवाब दिया, “मुझे नहीं आता मौलवी जी।”
मौलवी साहब ने बड़े प्यार से उसको सरज़निश की, “वज़ू करना नहीं आता... क्या जवाब देगी अल्लाह को।” ये कह कर वो उठे और उसको वज़ू कराया और साथ साथ इस अंदाज़ से समझाते रहे कि वो उसके बदन के एक एक कोने खदरे को झांक-झांक कर देख सकें।

वुज़ू कराने के बाद मौलवी साहिब ने जा-नमाज़ मांगी। वो न मिली तो फिर डाँटा, मगर उसी अंदाज़ में। खेस मंगवाया उसको अंदर की कोठड़ी में बिछाया और जीनां से कहा कि बाहर की कुंडी लगा दे। जब कुंडी लग गई तो उससे कहा कि घड़ा और कटोरा उठा के अंदर ले आए। वो ले आई। मौलवी साहब ने आधा कटोरा पिया और आधा अपने सामने रख लिया और तस्बीह फेरना शुरू करदी। जीनां उनके पास ख़ामोश बैठी रही।
बहुत देर तक मौलवी साहिब आँखें बंद किए इसी तरह वज़ीफ़ा करते रहे, फिर उन्होंने आँखें खोलीं। कटोरा जो आधा भरा था, उसमें तीन फूंकें मारीं और जीनां की तरफ़ बढ़ा दिया, “पी जाओ इसे।”

जीनां ने कटोरा पकड़ लिया मगर उसके हाथ काँपने लगे। मौलवी साहब ने बड़े जलाल भरे अंदाज़ में उसकी तरफ़ देखा, “हम कहते हैं, पी जाओ... तुम्हारे सारे दलिद्दर दूर हो जाऐंगे।”
जीनां पी गई, मौलवी साहब अपनी पतली लबों में मुस्कुराए और उससे कहा, “हम फिर अपना वज़ीफ़ा शुरू करते हैं... जब शहादत की उंगली से इशारा करें तो आधा कटोरा घड़े से निकाल कर फ़ौरन पी जाना... समझ गईं।”

मौलवी साहब ने उसको जवाब का मौक़ा ही न दिया और आँखें बंद करके मुराक़बे में चले गए... जीनां के मुँह का ज़ाएक़ा बेहद ख़राब हो गया था। ऐसा लगता था कि सीने में आग सी लग गई है।
वो चाहती थी कि उठ कर ठंडा-ठंडा पानी पिए, पर वो कैसे उठ सकती थी। जलन को हलक़ और सीने में लिए देर तक बैठी रही। उसके बाद एक दम मौलवी साहिब की शहादत की उंगली ज़ोर से उठी। जीनां को जैसे किसी ने हेपनाटिज़्म कर दिया था। फ़ौरन उसने आधा कटोरा भरा और पी गई। थूकना चाहा मगर उठ न सकी।

मौलवी साहब इसी तरह आँखें बंद किए तस्बीह के दाने खटाखट फेरते रहे। जीनां ने महसूस किया कि उसका सर चकरा रहा है और जैसे उसको नींद आ रही है फिर उसने नीम बेहोशी के आलम में यूँ महसूस किया कि वो किसी बे-दाढ़ी मूंछ वाले जवान मर्द की गोद में है और वो उसे जन्नत दिखाने ले जा रहा है।
जीनां ने जब आँखें खोलीं तो वो खेस पर लेटी थी। उसने नीम वा मख़्मूर आँखों से इधर-उधर देखा। और यहां क्यूँ लेटी थी, कब लेटी थी के मुतअल्लिक़ सोचना शुरू किया तो उसे सब कुछ धुंद में लिपटा नज़र आया। वो फिर सोने लगी लेकिन एक दम उठ बैठी। मौलवी साहब कहाँ थे?... और वो जन्नत?

कोई भी नहीं। वो बाहर सहन में निकली तो देखा कि दिन ढल रहा है और मौलवी साहब खर्रे के पास बैठे वुज़ू कर रहे हैं। आहट सुन कर उन्होंने पलट कर जीनां की तरफ़ देखा और मुस्कुराए। जीनां वापस कोठरी में चली गई और खेस पर बैठ कर अपनी माँ के मुतअल्लिक़ सोचने लगी, जिसको लाने उसका बाप गया हुआ था... पूरी एक रात बाक़ी थी, उनकी वापसी में।
और उसे सख़्त भूक लग रही थी। उसने कुछ पकाया रींधा नहीं था... उसके छोटे से मुज़्तरिब दिमाग़ में बेशुमार बातें आ रही थीं। कुछ देर के बाद मौलवी साहब नमूदार हुए और ये कह कर चले गए,

“मुझे तुम्हारे बाप के लिए एक वज़ीफ़ा करना है... सारी रात किसी क़ब्र के पास बैठना होगा... सुब्ह आ जाऊँगा... तुम्हारे लिए भी दुआ मागूँगा।”
मौलवी साहब सुबह-सवेरे नमूदार हुए। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें जिनमें सुरमे की तहरीर ग़ायब थी बेहद सुर्ख़ थीं। उनके लहजे में लुकनत थी और क़दमों में लड़खड़ाहट। सहन में आते ही उन्होंने मुस्कुरा कर जीनां की तरफ़ देखा, आगे बढ़ कर उस को गले से लगाया। उसको चूमा और चारपाई पर बैठ गए।

जीनां एक तरफ़ कोने में पीढ़ी पर बैठ गई और गुज़िश्ता धुँदले वाक़िआत के मुतअल्लिक़ सोचने लगी। उसको अपने बाप का भी इंतिज़ार था, जिसको इस वक़्त तक पहुंच जाना चाहिए था।
माँ से बिछड़े हुए उसको दो बरस हो चुके थे... और जन्नत... वो जन्नत... कैसी थी वो जन्नत! क्या वो मौलवी साहब थे?

मौलवी साहब थोड़ी देर के बाद उससे मुख़ातिब हुए, “जीनां, अभी तक मौजू नहीं आया।”
जीनां ख़ामोश रही।

मौलवी साहब फिर उससे मुख़ातिब हुए, “और मैं सारी रात एक टूटी फूटी क़ब्र पर सर न्यौढ़ाये सुन-सान रात में उसके लिए वज़ीफ़ा पढ़ता रहा। कब आएगा वो?... क्या वो ले आएगा तुम्हारी माँ को।”
जीनां ने सिर्फ़ इस क़दर कहा, “जी मालूम नहीं... शायद आते ही हों... आ जाएंगे... अम्मां भी आ जाएगी... पर ठीक पता नहीं।”

इतने में आहट हुई... जीनां उठी। उसकी माँ नमूदार हुई। वो उसे देखते ही उससे लिपट गई और रोने लगी। मौजू आया तो उसने मौलवी साहब को बड़े अदब और एहतिराम के साथ सलाम किया। फिर उसने अपनी बीवी से कहा, “फाताँ... सलाम करो मौलवी साहिब को।”
फाताँ अपनी बेटी से अलग हुई। आँसू पोंछते हुए आगे बढ़ी और मौलवी साहब को सलाम किया।

मौलवी साहब ने अपनी लाल लाल आँखों से उसको घूर के देखा और मौजू से कहा, “सारी रात क़ब्र के पास तुम्हारे लिए वज़ीफ़ा करता रहा... अभी अभी उठ के आया हूँ...अल्लाह ने मेरी सुन ली है... सब ठीक हो जाएगा।”
चौधरी मौजू ने फ़र्श पर बैठ कर मौलवी साहब के पांव दाबने शुरू कर दिए, वो इतना मम्नून-ओ-मुतशक़्क़िर था कि कुछ न कह सका। अलबत्ता बीवी से मुख़ातिब हो कर उसने आँसुओं भरी आवाज़ में कहा, “इधर आ फाताँ... तू ही मौलवी साहब का शुक्रिया अदा कर... मुझे तो नहीं आता।”

फाताँ अपने ख़ाविंद के पास बैठ गई पर वो सिर्फ़ इतना कह सकी, “हम ग़रीब क्या अदा कर सकते हैं।”
मौलवी साहब ने ग़ौर से फातां को देखा, “मौजू चौधरी, तुम ठीक कहते थे। तुम्हारी बीवी ख़ूबसूरत है... इस उम्र में भी जवान मालूम होती है। बिल्कुल दूसरी जीनां... उससे भी अच्छी... हम सब ठीक कर देंगे फाताँ... अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम हो गया है।”

मियां-बीवी दोनों ख़ामोश रहे। मौजू मौलवी साहिब के पांव दबाता रहा। जीनां चूल्हा सुलगाने में मसरूफ़ हो गई थी।
थोड़ी देर के बाद मौलवी साहब उठे। फाताँ के सर पर हाथ से प्यार किया और मौजू से मुख़ातिब हुए, “अल्लाह तआला का हुक्म है कि जब कोई आदमी अपनी बीवी को तलाक़ दे और फिर उसको अपने घर बसाना चाहे तो उसकी सज़ा ये है कि पहले वो औरत किसी और मर्द से शादी करे। उससे तलाक़ ले, फिर जायज़ है।”

मौजू ने हौले से कहा, “मैं सुन चुका हूँ मौलवी साहिब।”
मौलवी साहब ने मौजू को उठाया और उसके कंधे पर हाथ रखा, “लेकिन हमने ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ा कर दुआ मांगी कि ऐसी कड़ी सज़ा न दी जाये ग़रीब को। उससे भूल हो गई है... आवाज़ आई... हम हर रोज़ सिफारिशें कब तक सुनेंगे? तू अपने लिए जो भी मांग हम देने के लिए तैयार हैं। मैं ने अर्ज़ की, मेरे शहनशाह, बहर-ओ-बर के मालिक, मैं अपने लिए कुछ नहीं मांगता... तेरा दिया मेरे पास बहुत कुछ है। मौजू चौधरी को अपनी बीवी से मोहब्बत है... इरशाद हुआ... तो हम उसकी मोहब्बत और तेरे ईमान का इम्तिहान लेना चाहते हैं... एक दिन के लिए तू उससे निकाह कर ले। दूसरे दिन तलाक़ दे कर मौजू के हवाले कर दे। हम तेरे लिए बस सिर्फ़ यही कर सकते हैं कि तू ने चालीस बरस दिल से हमारी इबादत की है।”

मौजू बहुत ख़ुश हुआ, “मुझे मंज़ूर है, मौलवी साहब... मुझे मंज़ूर है।”और फातां की तरफ़ उसने तिमतिमाई आँखो से देखा।
“क्यूँ फाताँ?” मगर उसने फाताँ के जवाब का इंतिज़ार न किया, “हम दोनों को मंज़ूर है।”

मौलवी साहब ने आँखें बंद कीं। कुछ पढ़ा। दोनों के फूंक मारी और आसमान की तरफ़ नज़रें उठाईं, “अल्लाह तबारक तआला, हम सबको इस इम्तिहान में पूरा उतारे।”
फिर वो मौजू से मुख़ातिब हुआ, “अच्छा मौजू... मैं अब चलता हूँ... तुम और जीनां आज की रात कहीं चले जाना। सुबह-सवेरे आ जाना।”

ये कह कर मौलवी साहब चले गए।
जीनां और मौजू तैयार थे। जब शाम को मौलवी साहब वापस आए तो उन्होंने उनसे बहुत मुख़्तसर बातें कीं। वो कुछ पढ़ रहे थे। आख़िर में उन्होंने इशारा किया। जीनां और मौजू फ़ौरन चले गए।

मौलवी साहिब ने कुंडी बंद कर दी और फातां से कहा, “तुम आज की रात मेरी बीवी हो... जाओ अंदर से बिस्तर लाओ और चारपाई पर बिछाओ। हम सोएँगे।”
फातां ने अंदर कोठरी से बिस्तर ला कर चारपाई पर बड़े सलीक़े से लगा दिया। मौलवी साहिब ने कहा, “बीबी, तुम बैठो, हम अभी आते हैं।”

ये कह वो कोठरी में चले गए। अंदर दीया रोशनी था। कोने में बर्तनों के मुनारे के पास उनका घड़ा रखा था। उन्होंने उसे हिला कर देखा, थोड़ी सी बाक़ी थी। घड़े के साथ ही मुँह लगा कर उन्होंने कई बड़े बड़े घूँट पिए। कांधे से रेशमी फूलों वाला बसंती रुमाल उतार कर मूंछें और होंट साफ़ किए और दरवाज़ा भेड़ दिया।
फाताँ चारपाई पर बैठी थी। काफ़ी देर के बाद मौलवी साहब निकले। उनके हाथ में कटोरा था। उसमें तीन दफ़ा फूंक कर उन्होंने फाताँ को पेश किया, “लो इसे पी जाओ।”

फातां पी गई। क़ै आने लगी तो मौलवी साहिब ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “ठीक हो जाओगी फ़ौरन।”
फातां ने कोशिश की और किसी क़दर ठीक हो गई। मौलवी साहब लेट गए।

सुबह-सवेरे जीनां और मौजू आए तो उन्होंने देखा कि सहन में फातां सो रही है मगर मौलवी साहब मौजूद नहीं। मौजू ने सोचा, बाहर गए होंगे खेतों में। उसने फातां को जगाया। फातां ने ग़ूँ-ग़ूँ करके आहिस्ता-आहिस्ता आँखें खोलीं, फिर बड़बड़ाई। जन्नत... जन्नत। लेकिन जब उसने मौजू को देखा तो पूरी आँखें खोल कर बिस्तर में बैठ गई।
मौजू ने पूछा, “मौलवी साहब कहाँ हैं?”

फातां अभी तक पूरे होश में नहीं थी, “मौलवी साहब, कौन मौलवी साहब... वो तो... पता नहीं कहाँ गए... यहाँ नहीं हैं?”
“नहीं।” मौजू ने कहा, “मैं देखता हूँ उन्हें बाहर।”

वो जा रहा था कि उसे फाताँ की हल्की सी चीख़ सुनाई दी। पलट कर उसने देखा तकिए के नीचे से वो कोई काली-काली चीज़ निकाल रही थी... जब पूरी निकल आई तो उसने कहा, “ये क्या है? ”
मौजू ने कहा, “बाल।”

फाताँ ने बालों का वो गुच्छा फ़र्श पर फेंक दिया। मौजू ने उसे उठा लिया और गौर से देखा, “दाढ़ी और पट्टे।”
जीनां पास ही खड़ी थी। वो बोली, “मौलवी साहब की दाढ़ी और पट्टे”

फाताँ ने वहीं चारपाई से कहा, “हाँ... मौलवी साहब की दाढ़ी और पट्टे।”
मौजू अजीब चक्कर में पड़ गया, “और मौलवी साहब कहाँ हैं?” लेकिन फ़ौरन ही उसके सादा और बेलौस दिमाग़ में एक ख़याल आया। “जीनां... फाताँ, तुम नहीं समझीं... वो कोई करामात वाले बुज़ुर्ग थे। हमारा काम कर गए और ये निशानी छोड़ गए।”

उसने उन बालों को चूमा। आँखों से लगाया और उनको जीनां के हवाले कर के कहा, “जाओ, इनको किसी साफ़ कपड़े में लपेट कर बड़े संदूक़ में रख दो... ख़ुदा के हुक्म से घर में बरकत ही बरकत रहेगी।”
जीनां अंदर कोठरी में गई तो वो फाताँ के पास बैठ गया और बड़े प्यार से कहने लगा, “मैं अब नमाज़ पढ़ना सीखूँगा और उस बुज़ुर्ग के लिए दुआ किया करूंगा जिसने हम दोनों को फिर से मिला दिया।”

फातां ख़ामोश रही।


Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close