जमील को अपना शेफ़र लाइफ-टाइम क़लम मरम्मत के लिए देना था। उसने टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में शेफ़र कंपनी का नंबर तलाश किया। फ़ोन करने से मालूम हुआ कि उनके एजेंट मैसर्ज़ डी. जे. मेमोएर हैं जिनका दफ़्तर ग्रीन होटल के पास वाक़ा है। जमील ने टैक्सी ली और फोर्ट की तरफ़ चल दिया। ग्रीन होटल पहुंच कर उसे मैसर्ज़ डी. जे. मेमोएर का दफ़्तर तलाश करने में दिक़्क़त न हुई, बिल्कुल पास था मगर तीसरी मंज़िल पर। लिफ़्ट के ज़रिये जमील वहां पहुंचा। कमरे में दाख़िल होते ही चोबी दीवार की छोटी सी खिड़की के पीछे उसे एक ख़ुश शक्ल ऐंग्लो इंडियन लड़की नज़र आई, जिसकी छातियां ग़ैरमा’मूली तौर पर नुमायाँ थीं। जमील ने क़लम उसकी खिड़की के अंदर दाख़िल कर दिया और मुँह से कुछ न बोला। लड़की ने क़लम उसके हाथ से ले लिया, खोल कर एक नज़र देखा और एक चिट पर कुछ लिख कर जमील के हवाले कर दिया। मुँह से वो भी कुछ न बोली। जमील ने चिट देखी, क़लम की रसीद थी। चलने ही वाला था कि पलट कर उसने लड़की से पूछा, “दस बारह रोज़ तक तैयार हो जाएगा, मेरा ख़याल है।” लड़की बड़े ज़ोर से हंसी। जमील कुछ खिसयाना सा हो गया, “मैं आपकी इस हंसी का मतलब नहीं समझा।” लड़की ने खिड़की के साथ मुँह लगा कर कहा, “मिस्टर, आज कल वार है वार... ये क़लम अमरीका जाएगा, तुम नौ महीने के बाद तपास करना।” जमील बौखला गया, “नौ महीने!” लड़की ने अपने बुरीदा बालों वाला सर हिलाया... जमील ने लिफ़्ट का रुख़ किया। ये नौ महीने का सिलसिला ख़ूब था। नौ महीने... इतनी मुद्दत के बाद तो औरत गुल-गोथना बच्चा पैदा कर के एक तरफ़ रख देती है... नौ महीने। नौ महीने तक इस छोटी सी चिट को सँभाले रखो... और ये भी कौन वसूक़ से कह सकता है कि नौ महीने तक आदमी याद रख सकता है कि उसने एक क़लम मरम्मत के लिए दिया था... हो सकता है इस दौरान में वो कमबख़्त मर खप ही जाये। जमील ने सोचा, ये सब ढकोसला है। क़लम में मामूली सी ख़राबी थी कि उसका फीडर ज़रूरत से ज़्यादा रोशनाई सप्लाई करता था। इसके लिए उसे अमरीका के हस्पताल में भेजना सरीहन चालबाज़ी थी, मगर फिर उसने सोचा, ला’नत भेजो उस क़लम पर... अमरीका जाये या अफ़्रीक़ा। इसमें शक नहीं कि उसने ये ब्लैक मार्केट से एक सौ पछत्तर रुपये में ख़रीदा था, मगर उसने एक बरस उसे ख़ूब इस्तेमाल भी तो किया था, हज़ारों सफ़े काले कर डाले थे, चुनांचे वो क़ुनूती से एक दम रजाई बन गया और रजाई बनते ही उसे ख़याल आया कि वो फोर्ट में है और फोर्ट में शराब की बेशुमार दुकानें। विस्की तो ज़ाहिर है नहीं मिलेगी लेकिन फ़्रांस की बेहतरीन कोंक ब्रांडी तो मिल जाएगी, चुनांचे उसने क़रीब वाली शराब की दुकान का रुख़ किया। ब्रांडी की एक बोतल ख़रीद कर वो लौट रहा था कि ग्रीन होटल के पास आके रुक गया। होटल के नीचे क़द-ए-आदम शीशों का बना हुआ क़ालीनों का शोरूम था। ये जमील के दोस्त पीर साहब का था। उसने सोचा चलो अंदर चलें, चुनांचे चंद लम्हात के बाद ही वो शोरूम में था और अपने दोस्त पीर से, जो उम्र में उससे काफ़ी बड़ा था, और हंसी मज़ाक़ की गुफ़्तगू कर रहा था। ब्रांडी की बोतल बारीक काग़ज़ में लिपटी दबीज़ ईरानी क़ालीन पर लेटी हुई थी। पीर साहब ने उसकी तरफ़ इशारा करते हुए जमील से कहा, “यार, इस दुल्हन का घूंगट तो खोलो... ज़रा इससे छेड़ख़ानी तो करो।” जमील मतलब समझ गया, “तो पीर साहब, गिलास और सोडे मंगवाइए। फिर देखिए क्या रंग जमता है।” फ़ौरन गिलास और यख़-बस्ता सोडे आ गए। पहला दौर हुआ। दूसरा दौर शुरू होने ही वाला था कि पीर साहब के एक गुजराती दोस्त अंदर चले आए और बड़ी बेतकल्लुफ़ी से क़ालीन पर बैठ गए। इत्तफ़ाक़ से होटल का छोकरा दो के बजाय तीन गिलास उठा लाया था। पीर साहब के गुजराती दोस्त ने बड़ी साफ़ उर्दू में चंद इधर उधर की बातें कीं और गिलास में ये बड़ा पैग डाल कर उसको सोडे से लबालब भर दिया। तीन चार लंबे लंबे घूँट लेकर उन्होंने रुमाल से अपना मुँह साफ़ किया, “सिगरेट निकालो यार! ” पीर साहब में सातों ऐ’ब शरई थे, मगर वो सिगरेट नहीं पीते थे। जमील ने जेब से अपना सिगरेट केस निकाला और क़ालीन पर रख दिया, साथ ही लाइटर। इस पर पीर साहब ने जमील से उस गुजराती का तआ’रुफ़ कराया, “मिस्टर नटवरलाल, आप मोतियों की दलाली करते हैं।” जमील ने एक लहज़े के लिए सोचा, कोयलों की दलाली में तो इंसान का मुँह काला होता है... मोतियों की दलाली में... पीर साहब ने जमील की तरफ़ देखते हुए कहा, “मिस्टर जमील, मशहूर सॉंग राईटर...” दोनों ने हाथ मिलाया और ब्रांडी का नया दौर शुरू हुआ और ऐसा शुरू हुआ कि बोतल ख़ाली हो गई। जमील ने दिल में सोचा ये कमबख़्त मोतियों का दलाल बला का पीने वाला है... मेरी प्यास और सुरूर की सारी ब्रांडी चढ़ा गया, ख़ुदा करे इसे मोतियाबिंद हो। मगर जूँ ही आख़िरी दौर के पैग ने जमील के पेट में अपने क़दम जमाए, उसने नटवरलाल को माफ़ कर दिया और आख़िर में उससे कहा, “मिस्टर नटवर! उठिए, एक बोतल और हो जाये।” नटवरलाल फ़ौरन उठा। अपने सफ़ेद डगले की शिकनें दुरुस्त कीं। धोती की लॉंग ठीक की और कहा, “चलिए!” जमील पीर साहिब से मुख़ातिब हुआ, “हम अभी हाज़िर होते हैं।” जमील और नटवर ने बाहर निकल कर टैक्सी ली और शराब की दुकान पर पहुंचे। जमील ने टैक्सी रोकी मगर नटवर ने कहा, “मिस्टर जमील, ये दुकान ठीक नहीं। सारी चीज़ें महंगी बेचता है। ये कह कर वो टैक्सी ड्राईवर से मुख़ातिब हुआ, “देखो कोलाबा चलो!” कोलाबा पहुंच कर नटवर, जमील को शराब की एक छोटी सी दुकान में ले गया। जो ब्रांड जमील ने फोर्ट से लिया, वो तो न मिल सका, एक दूसरा मिल गया जिसकी नटवर ने बहुत तारीफ़ की कि नंबर वन चीज़ है। ये नंबर वन चीज़ ख़रीद कर दोनों बाहर निकले... साथ ही बार थी। नटवर रुक गया, “मिस्टर जमील! क्या ख़याल है आपका, एक दो पैग यहीं से पी कर चलते हैं।” जमील को कोई ए’तराज़ नहीं था, इसलिए कि उसका नशा हालत-ए-नज़ा में था। चुनांचे दोनों बार के अंदर दाख़िल हुए। मअ’न जमील को ख़याल आया कि बार वाले तो कभी बाहर की शराब पीने की इजाज़त नहीं दिया करते, “मिस्टर नटवर आप यहां कैसे पी सकते हैं, ये लोग इजाज़त नहीं देंगे।” नटवर ने ज़ोर से आँख मारी, “सब चलता है।” और ये कह कर एक केबिन के अंदर घुस गया। जमील भी उसके पीछे हो लिया। नटवर ने बोतल संगीन तिपाई पर रखी और बैरे को आवाज़ दी... जब वो आया तो उसको भी आँख मारी, “देखो! दो सोडे रोजर्ज़... ठंडे और दो गिलास, एक दम साफ़।” बैरा ये हुक्म सुन कर चला गया और फ़ौरन सोडे और गिलास हाज़िर कर दिए। इस पर नटवर ने उसे दूसरा हुक्म दिया, “फस्ट क्लास चिप्स और टोमैटो सोस... और फस्ट क्लास कटलस!” बैरा चला गया, नटवर जमील की तरफ़ देख कर ऐसे ही मुस्कुराया। बोतल का कार्क निकाला और जमील को गिलास में उससे पूछे बगै़र एक डबल डाल दिया। ख़ुद उससे कुछ ज़्यादा। सोडा हल हो गया तो दोनों ने अपने गिलास टकराए। जमील प्यासा था। एक ही जुरए में उसने आधा गिलास ख़त्म कर दिया। सोडा चूँकि बहुत ठंडा और तेज़ था इसलिए फूँ फूँ करने लगा। दस पंद्रह मिनट के बाद चिप्स और कटलेस आ गए। जमील सुबह घर से नाशता कर के निकला था लेकिन ब्रांडी ने उसे भूक लगा दी। चिप्स गर्म-गर्म थे, कटलेस भी। वो पिल पड़ा... नटवर ने उसका साथ दिया, चुनांचे दो मिनट में दोनों प्लेटें साफ़! दो प्लेटें और मंगवाई गईं। जमील ने अपने लिए चिप्स भी मंगवाए। दो घंटे इसी तरह गुज़र गए। बोतल की तीन चौथाई ग़ायब हो चुकी थी। जमील ने सोचा कि अब पीर साहब के पास जाना बेकार है। नशे ख़ूब जम रहे थे, सुरूर ख़ूब घट रहे थे। नटवर और जमील दोनों हवा के घोड़ों पर सवार थे। ऐसे सवारों को आम तौर पर ऐसी वादियों में जाने की बड़ी ख़्वाहिश होती है, जहां उन्हें उरियां बदन हसीन औरतें मिलें। वो उनकी कमर में हाथ डाल कर घोड़े पर बिठालें और ये जा, वो जा। जमील का दिल-ओ-दिमाग़ उस वक़्त किसी ऐसी वादी के मुतअ’ल्लिक़ सोच रहा था जहां उसकी किसी ऐसी ख़ूबसूरत औरत से मुडभेड़ हो जाये जिसको वो अपने तपते हुए सीने के साथ भींच ले, इस ज़ोर से कि उसकी हड्डियां तक चटख़ जाएं। जमील को इतना तो मालूम था कि वो ऐसी जगह पर है... मतलब है ऐसे इलाक़े में है जो अपने ब्रोथल्लज़ (क़हबा ख़ाने) की वजह से सारी बम्बई में मशहूर है, जिन्हें अय्याशी करना होती है, वो इधर का रुख़ करते हैं। शहर से भी जिस लड़की को लुक-छुप कर पेशा करना होता है, यहीं आती है। इन मालूमात की बिना पर उसने नटवर से कहा, “मैंने कहा, वो... वो मेरा मतलब है, उधर कोई छोकरी वोकरी नहीं मिलती?” नटवर ने अपने गिलास में एक बड़ा पैग उंडेला और हंसा, “मिस्टर जमील! एक नहीं हज़ारों, हज़ारों... हज़ारों!” ये हज़ारों की गर्दान जारी रहती अगर जमील ने उसकी बात काटी न होती, “उन हज़ारों में से आज एक ही मिल जाये तो हम समझें कि नटवर भाई ने कमाल कर दिया।” नटवर भाई मज़े में थे, झूम कर कहा, “जमील भाई, एक नहीं हज़ारों... चलो, इसको ख़त्म करो।” दोनों ने बोतल में जो कुछ बचा था, आध घंटे के अंदर अंदर ख़त्म कर दिया। बिल अदा करने और बैरे को तगड़ी टिप देने के बाद दोनों बाहर निकले। अंदर अंधेरा था, बाहर धूप चमक रही थी। जमील की आँखें चौंधिया गईं। एक लहज़े के लिए उसे कुछ नज़र न आया। आहिस्ता आहिस्ता उसकी आँखें तेज़ रोशनी की आदी हुईं तो उसने नटवर से कहा, “चलो भई! ” नटवर ने तलाशी लेने वाली निगाहों से जमील की तरफ़ देखा, “माल पानी है न?” जमील के होंटों पर नशीली मुस्कुराहट नुमूदार हुई। नटवर की पसलियों में कोहनी से ठोका दे कर उसने कहा, “बहुत, नटवर भाई, बहुत।” और उसने जेब से पाँच नोट सौ सौ के निकाले,“क्या इतने काफ़ी नहीं?” नटवर की बाछें खिल गईं, “काफ़ी?बहुत ज़्यादा हैं... चलो आओ, पहले एक बोतल ख़रीद लें, वहां ज़रूरत पड़ेगी।” जमील ने सोचा, बात बिल्कुल ठीक है, वहां ज़रूरत नहीं पड़ेगी तो क्या किसी मस्जिद में पड़ेगी। चुनांचे फ़ौरन एक बोतल ख़रीद ली गई। टैक्सी खड़ी थी, दोनों उसमें बैठ गए और उस वादी की सय्याही करने लगे। सैंकड़ों ब्रोथलज़ थे। उनमें से बीस-पच्चीस का जायज़ा लिया गया, मगर जमील को कोई औरत पसंद न आई। सब मेक-अप की मोटी और शोख़ तहों के अंदर छुपी हुई थीं। जमील चाहता था कि ऐसी लड़की मिले जो मरम्मत शुदा मकान मालूम न हो। जिसको देख कर ये एहसास न हो कि जगह जगह उखड़े हुए पलस्तर के टुकड़ों पर बड़े अनाड़ीपन से सुर्ख़ी और चूना लगाया गया है। नटवर तंग आ गया। उसके सामने जो भी औरत आती थी, वो जमील का कंधा पकड़ कर कहता, “जमील भाई, चलेगी!” मगर जमील भाई उठ खड़ा होता, “हाँ चलेगी... और हम भी चलेंगे!” दो जगहें और देखी गईं मगर जमील को मायूसी का मुँह देखना पड़ा। वो सोचता था कि इन औरतों के पास कौन आता है जो सुअर के सूखे हुए गोश्त के टुकड़ों की तरह दिखाई देती हैं। इनकी अदाएँ कितनी मकरूह हैं। उठने बैठने का अंदाज़ कितना फ़हश है और कहने को ये प्राइवेट हैं या’नी ऐसी औरतें जो दर पर्दा पेशा कराती हैं। जमील की समझ में नहीं आता था कि वो पर्दा कहाँ है जिसके पीछे ये धंदा कराती हैं। जमील सोच ही रहा था कि अब प्रोग्राम क्या होना चाहिए, कि नटवर ने टैक्सी रुकवाई और उतर कर चला गया कि एक दम उसे एक ज़रूरी काम याद आ गया था। अब जमील अकेला था। टैक्सी तीस मील फ़ी घंटा की रफ़्तार से चल रही थी। उस वक़्त साढे़ चार बज चुके थे। उसने ड्राइवर से पूछा, “यहां कोई भड़वा मिलेगा?” ड्राईवर ने जवाब दिया, “मिलेगा जनाब!” “तो चलो उसके पास!” ड्राइवर ने दो तीन मोड़ घूमे और एक पहाड़ी बंगला नुमा बिल्डिंग के पास गाड़ी खड़ी कर दी। दो तीन मर्तबा हॉर्न बजाया। जमील का सर नशे के बाइ’स सख़्त बोझल हो रहा था। आँखों के सामने धुंद सी छाई हुई थी... उसे मालूम नहीं था कैसे और किस तरह, मगर जब उसने ज़रा दिमाग़ को झटका तो उसने देखा कि वो एक पलंग पर बैठा है और उसके पास ही एक जवान लड़की, जिसकी नाक की फ़ुंग पर छोटी सी फुन्सी थी, अपने बुरीदा बालों में कंघी कर रही है। जमील ने उसको ग़ौर से देखा। सोचने ही वाला था कि वो यहां कैसे पहुंचा मगर उसके शऊर ने उस को मशवरा दिया कि देखो ये सब अ’बस है। जमील ने सोचा, ये ठीक है लेकिन फिर भी उसने अपनी जेब में हाथ डाल कर अंदर ही अंदर नोट गिन कर और पास पड़ी हुई तिपाई पर ब्रांडी की सालिम बोतल देख कर अपनी तशफ़्फी कर ली कि सब ख़ैरियत है। उसका नशा किसी क़द्र नीचे उतर गया। उठ कर वो उस गेसू बुरीदा लड़की के पास गया और कुछ समझ में न आया। मुस्कुरा कर उससे कहा, “कहिए, मिज़ाज कैसा है? उस लड़की ने कंघी मेज़ पर रखी और कहा, “कहिए आपका कैसा है?” “ठीक हूँ!” ये कह कर उसने लड़की की कमर में हाथ डाला, “आपका नाम?” “बता तो चुकी एक दफ़ा... आपको मेरा ख़याल है ये भी याद न रहा होगा कि आप टैक्सी में यहां आए... जाने कहाँ कहाँ घूमते रहे होंगे कि बिल अड़तीस रुपये बना जो आपने अदा किया और एक शख़्स का नाम शायद नटवर था, आपने उसको बेशुमार गालियां दीं।” जमील अपने अंदर डूब कर सारे मुआ’मले की तह तक पहुंचने की कोशिश करने ही वाला था कि उस ने सोचा कि फ़िलहाल इसकी ज़रूरत नहीं, मैं भूल जाया करता हूँ... या यूँ समझिए कि मुझे बार बार पूछने में मज़ा आता है। वो सिर्फ़ इतना याद कर सका कि उसने टैक्सी वाले का बिल जो कि अड़तीस रुपये बनता था, अदा किया था। लड़की पलंग पर बैठ गई, “मेरा नाम तारा है।” जमील ने उसको लेटा दिया और उससे मस्नूई क़िस्म का प्यार करने लगा। थोड़ी देर के बाद उसको प्यास महसूस हुई तो उसने तारा से कहा, “दो यख़बस्ता सोडे और गिलास!” तारा ने ये दोनों चीज़ें फ़ौरन हाज़िर कर दीं। जमील ने बोतल खोली, अपने लिए एक पैग डाल कर उसने दूसरा तारा के लिए डाला, फिर दोनों पीने लगे। तीन पैग पीने के बाद जमील ने महसूस किया कि उसकी हालत बेहतर हो गई है। तारा को चूमने चाटने के बाद उसने सोचा कि अब क़िस्सा मुख़्तसर हो जाना चाहिए, “कपड़े उतार दो!” “सारे?” “हाँ सारे!” तारा ने कपड़े उतार दिए और लेट गई। जमील ने उसके नंगे जिस्म को एक नज़र देखा और ये राय क़ाएम की कि अच्छा है। इसके साथ ही ख़यालात का एक तांता बंध गया। जमील का निकाह हो चुका था। उसने अपनी बीवी को दो तीन मर्तबा देखा था। उसका बदन कैसा होगा... क्या वो तारा की तरह उसके एक मर्तबा कहने पर अपने सारे कपड़े उतार कर उसके साथ लेट जाएगी? क्या वो उसके साथ ब्रांडी पिएगी? क्या उसके बाल कटे हुए हैं? फिर फ़ौरन उसका ज़मीर जागा जिसने उसको ला’नत मलामत शुरू कर दी। निकाह का ये मतलब था कि उसकी शादी हो चुकी थी। सिर्फ़ एक मरहला बाक़ी था कि वो अपनी ससुराल जाये और लड़की का हाथ पकड़ कर ले आए। क्या उसके लिए ये वाजिब था कि एक बाज़ारी औरत को अपनी आग़ौश की ज़ीनत बनाए... खुम का खुम लूंढाता फिरे। जमील बहुत ख़फ़ीफ़ हुआ और उसी ख़िफ़्फ़त में उसकी आँखें मुंदना शुरू हो गईं और वो सो गया। तारा भी थोड़ी देर के बाद ख़्वाब-ए-ग़फ़लत के मज़े लेने लगी। जमील ने कई बेरब्त, ऊट-पटांग ख़्वाब देखे... कोई दो घंटे के बाद जब कि एक बहुत ही डरावना ख़्वाब देख रहा था, वो हड़बड़ा के उठा। जब अच्छी तरह आँखें खुलीं तो उसने देखा कि वो एक अजनबी कमरे में है और उसके साथ अलिफ़ नंगी लड़की लेटी है लेकिन थोड़ी ही देर के बाद वाक़िआत आहिस्ता आहिस्ता उसके दिमाग़ की धुंद चीर कर नुमूदार होने लगे। वो ख़ुद भी अलिफ़ नंगा था। बौखलाहट में उसने उल्टा पाजामा पहन लिया, मगर उसको एहसास न हुआ। कुरता पहन कर उसने जेबें टटोलीं। नोट सबके सब मौजूद थे। उसने सोडा खोला और एक पैग बना कर पिया। फिर उसने तारा को होले से झिंझोड़ा, “उठो!” तारा आँखें मलती उठी। जमील ने उससे कहा, “कपड़े पहन लो!” तारा ने कपड़े पहन लिये। बाहर गहरी शाम रात बनने की तैयारियां कर रही थी। जमील ने सोचा, अब कूच करना चाहिए, लेकिन वो तारा से कुछ पूछना चाहता था, क्योंकि बहुत सी बातें उसके ज़ेहन से निकल गईं थीं, “क्यों तारा जब हम लेटे... मेरा मतलब है जब मैंने तुमसे कपड़े उतारने को कहा तो उसके बाद क्या हुआ?” तारा ने जवाब दिया, “कुछ नहीं, आपने अपने कपड़े उतारे और मेरे बाज़ू पर हाथ फेरते फेरते सो गए।” “बस?” “हाँ, लेकिन सोने से पहले आप दो तीन मर्तबा बड़बड़ाए और कहा, मैं गुनाहगार हूँ... मैं गुनाहगार हूँ।” ये कह कर तारा उठी और अपने बाल संवारने लगी। जमील भी उठा, गुनाह का एहसास दबाने के लिए उसने डबल पैग अपने हलक़ में जल्दी जल्दी उंडेला। बोतल को काग़ज़ में लपेटा और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा। तारा ने पूछा, “चले?” “हाँ, फिर कभी आऊँगा।” ये कह कर वो लोहे की पेचदार सीढ़ियों से नीचे उतर गया। बड़े बाज़ार की तरफ़ उसके क़दम उठने ही वाले थे कि हॉर्न बजा उसने मुड़ कर देखा तो एक टैक्सी खड़ी थी। उसने कहा, “चलो, अच्छा हुआ, यहीं मिल गई। पैदल चलने की ज़हमत से बच गए।” उसने ड्राइवर से पूछा, “क्यों भाई ख़ाली है?” ड्राइवर ने जवाब दिया, “ख़ाली है का क्या मतलब... लगी हुई है!” “तो फिर...” ये कह कर जमील मुड़ा, लेकिन ड्राइवर ने उसको पुकारा, “किधर जाता है सेठ?” जमील ने जवाब दिया, “कोई और टैक्सी देखता हूँ।” ड्राइवर बाहर निकल आया, “मस्तक तो नहीं फिरे ला... ये टैक्सी तुम्हीं ने तो ले रखी है!” जमील बौखला गया, “मैंने?” ड्राइवर ने बड़े गंवार लहजे में उससे कहा, “हाँ, तू ने... साला दारू पी कर सब कुछ भूल गया।” इस पर तू-तू मैं-मैं शुरू हुई। इधर उधर से लोग इकट्ठे हो गए। जमील ने टैक्सी का दरवाज़ा खोला और अंदर बैठ गया, “चलो!” ड्राइवर ने टैक्सी चलाई, “किधर?” जमील ने कहा, “पुलिस स्टेशन!” ड्राइवर ने उस पर जाने क्या वाही तबाही बकी... जमील सोच में पड़ गया। जो टैक्सी उसने ली थी, उसका बिल जो अड़तीस रुपये था, उसने अदा कर दिया था। अब ये नई टैक्सी कहाँ से आन टपकी। गो वो नशे की हालत में था मगर वो यक़ीनी तौर पर कह सकता था कि ये वो टैक्सी नहीं थी, और न ये ड्राइवर वो ड्राइवर जो उसे यहां लाया था। पुलिस स्टेशन पहुंचे। जमील के क़दम बहुत बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे। सब इंस्पेक्टर जो उस वक़्त ड्यूटी पर था, फ़ौरन भाँप गया कि मुआ’मला क्या है। उसने जमील को कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। ड्राइवर ने अपनी दास्तान शुरू कर दी जो सर-ता-पा ग़लत थी। जमील यक़ीनन उसकी तरदीद करता मगर उसमें ज़्यादा बोलने की हिम्मत नहीं थी। सब इंस्पेक्टर से मुख़ातिब हो कर उसने कहा,“जनाब! मेरी समझ में नहीं आता। ये क्या क़िस्सा है, जो टैक्सी मैंने ली थी, उसका किराया मैंने अड़तीस रुपये अदा कर दिया था। अब मा’लूम नहीं कि ये कौन है और मुझसे कैसा किराया मांगता है?” ड्राइवर ने कहा, “हुज़ूर इंस्पेक्टर बहादुर! ये दारू पिए है।” और सबूत के तौर पर उस ने जमील की ब्रांडी की बोतल मेज़ पर रख दी। जमील झुँझला गया, “अरे भई! कौन सुअर कहता है कि इसने नहीं पी... सवाल तो ये है कि आप कहाँ से तशरीफ़ ले आए?” सब इंस्पेक्टर शरीफ़ आदमी था। किराया ड्राइवर के हिसाब से बयालिस रुपये बनता था। उसने पंद्रह रुपये में फ़ैसला कर दिया। ड्राईवर बहुत चीख़ा चिल्लाया मगर सब इंस्पेक्टर ने उसको डांट डपट कर थाने से निकलवा दिया। फिर उसने एक सिपाही से कहा कि वो दूसरी टैक्सी लाए। टैक्सी आई तो उसने एक सिपाही जमील के साथ कर दिया कि वो इसे घर छोड़ आए। जमील ने लुकनत भरे लहजे में उसका बहुत बहुत शुक्रिया अदा किया और पूछा, “जनाब क्या ये ग्रांट रोड पुलिस स्टेशन है?” सब इंस्पेक्टर ने ज़ोर का क़हक़हा लगाया और पेट पर हाथ रखते हुए कहा, “मिस्टर! अब साबित हो गया कि तुमने ख़ूब पी रखी है... ये कोलाबा पुलिस स्टेशन है। जाओ, अब घर जा कर सो जाओ।” जमील घर जा के खाना खाए और कपड़े उतारे बगै़र सो गया। ब्रांडी की बोतल भी उसके साथ सोती रही। दूसरे रोज़ वो दस बजे के क़रीब उठा। जोड़ जोड़ में दर्द था, सर में जैसे बड़े बड़े वज़नी पत्थर थे। मुँह का ज़ाएक़ा ख़राब। उसने उठ कर दो तीन गिलास फ्रूट साल्ट के पिए, चार पाँच प्याले चाय के। तब कहीं शाम को जा कर तबीयत किसी क़दर बहाल हुई और उसने ख़ुद को गुज़श्ता वाक़िआ’त के मुतअ’ल्लिक़ सोचने के क़ाबिल महसूस किया। बहुत लंबी ज़ंजीर थी। उनमें से बा’ज़ कड़ियां तो सलामत थीं, मगर बा’ज़ ग़ायब। वाक़ियात का तसलसुल शुरू से लेकर ग्रीन होटल और वहां से लेकर कोलाबा तक बिल्कुल साफ़ था। इसके बाद जब नटवर के साथ ख़ास वादी की सय्याही शुरू हुई थी, मुआ’मला गड-मड हो जाता था। चंद झलकियां दिखाई देती थीं। बड़ी वाज़ेह, मगर फ़ौरन मुबहम परछइयों का सिलसिला शुरू हो जाता था। वो कैसे उस लड़की के घर पहुंचा... उसका नाम जमील के हाफ़िज़े से फिसल कर जाने किस खड में जा गिरा था। उसकी शक्ल-ओ-सूरत उसे अलबत्ता बड़ी अच्छी तरह याद थी। वो उसके घर कैसे पहुंचा था, ये जानना बहुत अहम था। अगर जमील का हाफ़िज़ा उसकी मदद करता तो बहुत सी चीज़ें साफ़ हो जातीं। मगर बसद कोशिश वो किसी नतीजे पर न पहुंच सका। और ये टैक्सियों का क्या सिलसिला था। उसने पहली को तो छोड़ दिया था, मगर वो दूसरी कहाँ से टपक पड़ी थी? सोच सोच के जमील का दिमाग़ पाश पाश हो गया। उसने महसूस किया कि जितने वज़नी पत्थर थे, सब आपस में टकरा टकरा कर चूर चूर हो गए हैं। रात को उसने ब्रांडी के तीन पैग पिए, थोड़ा सा हल्का खाना खाया और गुज़श्ता वाक़िआ’त के मुतअ’ल्लिक़ सोचता सोचता सो गया। वो टुकड़े जो गुम हो गए थे, उनको तलाश करना अब जमील का शग़ल हो गया था। वो चाहता था कि जो कुछ उस रोज़ हुआ, मिन-ओ-अ’न उसकी आँखों के सामने आ जाए और ये रोज़ रोज़ की मग़्ज़ पाशी दूर हो। इसके इलावा उसको इस बात का भी बड़ा क़लक़ था कि उसका गुनाह नामुकम्मल रह गया। वो सोचता ये अधूरा गुनाह जाएगा किस खाते में। वो चाहता था कि बस एक दफ़ा उसकी भी तकमील हो जाये। मगर तलाश-ए-बिसियार के बावजूद वो पहाड़ी बंगलों जैसा मकान जमील की आँखों से ओझल रहा। जब वो थक हार गया तो उसने एक दिन सोचा कि ये सब ख़्वाब ही तो नहीं था! मगर ख़्वाब कैसे हो सकता था। ख़्वाब में आदमी इतने रुपये तो ख़र्च नहीं करता... उस रोज़ उसके कम अज़ कम ढाई सौ रुपये ख़र्च हुए थे। पीर साहब से उसने नटवर के मुतअ’ल्लिक़ पूछा तो उन्होंने बताया कि वो उस रोज़ के बाद दूसरे दिन ही समुंदर पार कहीं चला गया है, ग़ालिबन मोतियों के सिलसिले में। जमील ने उस पर हज़ार ला’नतें भेजीं और अपनी तलाश शुरू कर दी। उसने जब अपने हाफ़िज़े पर बहुत ज़ोर दिया तो उसे बंगले की दीवार के साथ पीतल की एक प्लेट नज़र आई... उस पर कुछ लिखा था, ग़ालिबन डाक्टर... डाक्टर बैराम जी, आगे जाने क्या...? एक दिन कोलाबा की गलियों में चलते चलते आख़िर वो एक ऐसी गली में पहुंचा जो उसको जानी पहचानी मालूम हुई। दो रुया इसी क़िस्म की बंगला नुमा इमारतें थीं। हर इमारत के बाहर छोटे छोटे पीतल के बोर्ड लगे थे। किसी पर चार किसी पर पाँच... किसी पर तीन। वो इधर उधर ग़ौर से देखता चला जा रहा था, मगर उसके दिमाग़ में वो ख़त घूम रहा था जो सुबह उसकी सास की तरफ़ से मौसूल हुआ था कि अब इंतिज़ार की हद हो गई है। मैंने तारीख़ मुक़र्रर कर दी है, आओ और अपनी दुल्हन को ले जाओ। और वो इधर एक नामुकम्मल गुनाह को मुकम्मल बनाने की कोशिश में मारा मारा फिर रहा था। जमील ने कहा, “हटाओ जी इस वक़्त, फिरने दो मारा मारा... एक दम उसने अपना दाहिने हाथ पीतल का एक छोटा सा बोर्ड देखा... उस पर लिखा था, डाक्टर एम बैराम जी, एम.डी। जमील काँपने लगा। ये वही बिल्डिंग, बिल्कुल वही... वही रंग, वही बल खाती हुई आहनी सीढ़ियां। जमील बेधड़क ऊपर चला गया। उसके लिए अब हर चीज़ जानी पहचानी थी। कॉरीडोर से निकल कर उसने सामने वाले दरवाज़े पर दस्तक दी। एक लड़के ने दरवाज़ा खोला... उसी लड़के ने जो उस रोज़ सोडा और बर्फ़ लाया था। जमील ने होंटों पर मस्नूई मुस्कुराहट पैदा करते हुए उस से पूछा, “बेटा, बाई जी हैं?” लड़के ने इस्बात में सर हिलाया, “जी हाँ!” “जाओ, उनसे कहो, साहब मिलने आए हैं।” जमील के लहजे में बेतकल्लुफ़ी थी। लड़का दरवाज़ा भेड़ कर अंदर चला गया थोड़ी देर के बाद दरवाज़ा खुला और तारा नुमूदार हुई। उसको देखते ही जमील ने पहचान लिया कि वो लड़की है, मगर अब उसकी नाक पर फुन्सी नहीं थी, “नमस्ते!” “नमस्ते! कहिए मिज़ाज कैसे हैं?” ये कह कर उसने अपने कटे हुए बालों को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका दिया। जमील ने जवाब दिया, “अच्छे हैं, मैं पिछले दिनों बहुत मसरूफ़ रहा, इसलिए आ न सका... कहो, फिर क्या इरादा है?” तारा ने बड़ी संजीदगी से कहा, “माफ़ कीजिए, मेरी शादी हो चुकी है।” जमील बौखला गया, “शादी... कब?” तारा ने उसी संजीदगी से जवाब दिया, “जी, आज सुबह... आइए मैं आपको अपने पति से मिलाऊं।” जमील चकरा गया और कुछ कहे सुने बगै़र खटाखट नीचे उतर गया, सामने टैक्सी खड़ी थी। जमील का दिल एक लहज़े के लिए साकित सा हो गया। तेज़ क़दम उठाता, वो बड़े बाज़ार की तरफ़ निकल गया। मअ’न जमील को जाते देख कर ड्राइवर ने ज़ोर से कहा, “सेठ साहब टैक्सी!” जमील ने झुँझला कर कहा, “नहीं कमबख़्त, शादी!”