तीसरी जिन्स

मुद्दी का अस्ल नाम अहमदी ख़ानम था। तहसीलदार साहब प्यार से मुद्दी-मुद्दी कहते थे, वही मशहूर हो गया। मुद्दी का रंग बंगाल में सौ दो सौ में और हमारे सूबे में हज़ार दो हज़ार में एक था। जिस तरह फ़ीरोज़े का रंग मुख़्तलिफ़ रौशनियों में बदला करता है उसी तरह मुद्दी का रंग था।
थी तो खिलती हुई साँवली रंगत जिसको सब्ज़ा कहते हैं। मगर मुख़्तलिफ़ रंग के दुपट्टों या साड़ियों के साथ मुख़्तलिफ़ रंग पैदा होता था। किसी रंग के साथ दमक उठता था, किसी रंग के साथ टिमटिमाहट पैदा करता था। बाज़-औक़ात जिल्द की ज़र्दी में सब्ज़ी ऐसी झलकती थी कि दिल चाहता था कि देखा ही करे। शम्अ’ की रौशनी में मुद्दी की रंगत तो ग़ज़ब ही ढाती थी। कभी आपने दूसरे दर्जे की मदक़ूक़ को देखा है। अगर बीमारी से क़त’-ए-नज़र कीजिए तो रंगत की नज़ाकत वैसे ही थी। आँखें बड़ी न थीं मगर जब निगाह नीचे से ऊपर करती थी तो वाह-वाह। मा’लूम होता था मंदिर का दरवाज़ा खुल गया, देबी जी के दर्शन हो गए। मुस्कुराहट में न शोख़ी न शरारत, न बनावट की शर्म न लुभावट की कोशिश। लकड़ी लोहे के क़लम को कैसे मू-क़लम कर दूँ कि आपके सामने वो मुस्कुराहट आ जाए।

बस ये समझ लीजिए कि ख़ुदा ने जैसी मुस्कुराहट उसके लिए तजवीज़ की थी वही थी। मुद्दी अपनी तरफ़ से उसमें कोई इज़ाफ़ा नहीं करती थी। उसके किसी अंदाज़ में बनावट न थी। हाथ पाँव, क़द, चेहरे के आ’ज़ा सब छोटे-छोटे मगर वाह रे तनासुब। आवाज़, हँसी, चाल-ढाल हरचीज़ वैसी ही। मैं मुद्दी से बहुत बे-तकल्लुफ़ था मगर उ’श्शाक़ में कभी नहीं था। और जहाँ तक मैं जानता हूँ कोई और भी नहीं सुना गया। ऐसी ख़ूबसूरत औ’रत बिला-मर्द की हिफ़ाज़त के ज़िंदगी बसर करे और उ’श्शाक़ न हों, बड़े तअ’ज्जुब की बात है।
मगर वाक़िआ’ है। एक रोज़ मैंने कहा मुद्दी अगर हम जादूगर होते तो जादू के ज़ोर से तुमको तितली बनाकर एक छोटी सी डिबिया में बंद करके अपनी पगड़ी में रख लेते। इस फ़न-ए-शरीफ़ से वाक़िफ़-कार हज़रात जानते हैं कि जो हर्बा मैंने इस्ति’माल किया था वो कम ख़ाली जाने वाला था। मगर उसके भी जवाब में वही बे-तकल्लुफ़ मुस्कुराहट की ढाल जो तलवार के मुँह मोड़ दे।

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

अक्सर ख़याल गुज़रता है कि ये इस्ति़ग़ना तहसीलदार मरहूम की सफ़ेद दाढ़ी के साये में परवरिश पाने का असर है। मगर फिर अ’क़्ल कहती थी कि जोश-ए-हयात ने ना-मा’लूम कितनी सफ़ेद दाढ़ियों में फूँका डाला है। वो सफ़ेद दाढ़ी क़ब्र में भी पहुँच गई। उसका असर कहाँ से आया। बहर-हाल क़िस्सा सुनते जाईए और रफ़्ता-रफ़्ता राय क़ाएम करते जाईए।
मुद्दी के हर अंदाज़ में निस्वानियत कूट-कूट कर भरी थी। एक बात अलबत्ता थी जो गो औ’रतों में भी होती है। मगर हम ऐसे बोर्ज़ुवा लोग उसको मर्द ही से मंसूब करते हैं। या’नी अपने हम-तब्क़ा औ’रतों में और उसी तबक़े के मर्दों में मुद्दी हुकूमत ख़ूब कर लेती थी। हर शख़्स औ’रत कि मर्द, उनका ताबे’ फ़रमान रहता था। और उनके इशारे पर चलने को तैयार।

अब शुरू’ से क़िस्सा सुनिए। तहसीलदार साहब का नाम क्या कीजिएगा जान कर। मरहूम बड़े अच्छे आदमी थे मगर बे-ऐ’ब ख़ुदा की ज़ात। कुछ ख़ास ख़ास कमज़ोरियाँ कही जाती थीं। पुरानी वज़्अ’ के लोग थे। बड़ी शान से तहसील=दारी की। लाखों कमाए और हज़ारों उड़ाए। मगर औलाद न होने की वज्ह से उनकी ज़िंदगी कुछ बे-मर्कज़ की सी हो गई थी। बीबी बहुत दिन हुए मर चुकी थीं। कोई क़रीब का अ’ज़ीज़ भी न था। सिर्फ़ एक नौकर था वही सियह-सपीद का मालिक था। तनख़्वाह उसी के हाथ आती थी और जब पैंशन हुई तो पैंशन का भी वही हक़दार ठहरा। मियाँ के कपड़े और खाना भी मियाँ हसन अ’ली ही पसंद करते थे। हसन अ’ली किसी काम को बाज़ार गए। दो थान राधा नगरी डोरिए के लिए चले आते हैं। मियाँ के कुर्ते बनेंगे मगर मियाँ को उस वक़्त ख़बर हुई जब दर्ज़ी क़त्अ’ करने लगा।
“अरे मियाँ हसन अ’ली ये डोर ये कैसा लाए हो?”

हसन अ’ली, “आपके कुर्तों के लिए। डोरिया वज़्अ’-दार है। सिलने पर और खिलेगा।”
“खिलेगा तो मगर कुर्ते तो मेरे पास थे। अभी उस दिन शरबती ले आए। आज डोरिया लिए चले आते हैं, आख़िर पूछ तो लिया होता।”

“पूछ के क्या करता। आप यही तो कहते कि रहने दो। घर में एक चीज़ हो गई। बरसात का ज़माना है। धोबी देर में आया करेगा। दो जोड़े फ़ाज़िल अच्छे होते हैं।”
“ख़ैर भई!”

तहसीलदार खाने पर बैठे हैं।
“मियाँ हसन अ’ली आजकल बाज़ार में मछली नहीं आती।”

“आती तो है मगर गर्मियों की वज्ह से मैंने नहीं मँगवाई। इस फ़स्ल में मछली नुक़्सान करती है, सुब्ह को मुर्ग़ पक जाएगा।”
तहसीलदार साहब पर हसन अ’ली की शख़्सियत ऐसी ग़ालिब आई थी कि जो बात वो पसंद करते थे तहसीलदार समझते थे कि गोया ये भी मेरे दिल में है। इसी वज्ह से ग़ैर-ज़िम्मेदार लोग दोनों का ज़िक्र करके मुस्कुराते थे। और आपस में आँखें मारते थे। मियाँ हसन अ’ली का उस्तरे से सफ़ाचट चेहरा और तहसीलदार साहब की भबूडाढ़ी पर चे-मी-गोइयाँ होती थीं। दाढ़ी मूँछों का सफ़ाया सिर्फ़ अंग्रेज़ी-दाँ हज़रात का हक़ है। अगर हसन अ’ली ऐसे अपनी चाल छोड़कर हंस की चाल चलेंगे तो अल्लाह ही ने कहा है। लोग कोई न कोई नी निकालेंगे। बहर-हाल अस्लियत की ख़बर ख़ुदा को है। हम तो जो कुछ देखते थे वो ये था कि तहसीलदार का हम-दर्द दुनिया जहान में हसन अ’ली के इ’लावा कोई न था। हसन अ’ली को भी इससे अच्छा आक़ा अगर चराग़ ले के ढूँडते तो न मिलता।

अल्लाह मियाँ ने दो जिंसें बनाई थीं। औ’रत और मर्द। यूरोप के डाक्टरों ने तहक़ीक़ात करके एक और जिंस ईजाद की है जो अपने ही जिंस की तरफ़ राग़िब हो। इस जिंस में औ’रतें भी शामिल हैं और मर्द भी। अब ना-मा’लूम तहसीलदार और हसन अ’ली इस तीसरी जिंस में से थे या वैसे ही थे जैसे हम आप या बा’द को कुछ अदल-बदल हुई।
इसको न हम जानते हैं न जानने की कोशिश करते हैं। वो जानें और उनका काम। ज़ाहिर ब-ज़ाहिर उन दोनों के अफ़आ’ल से दूसरों की समाजी ज़िंदगी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। इसलिए हमको खोज की कोई ज़रूरत भी नहीं मा’लूम होती। तहसीलदार साहब भारी-भरकम आदमी थे। औलाद न होने का दुखड़ा क्या रोते मगर औलाद की तमन्ना इस बात से ज़ाहिर होती थी कि जब खाना खाते तो हसन अ’ली की लड़की अहमदी को बुलवा भेजते थे कि दस्तर-ख़्वान पर बैठ जाए। इसी वज्ह से खाना तन्हाई में खाने लगे थे। नौकर की लड़की को दस्तर-ख़्वान पर खिलाए कुछ अच्छा नहीं लगता था। इसके इ’लावा अगर सबके सामने खिलाते तो साहब-ए-औलाद न होने का रंज और बच्चों की तमन्ना लोगों पर खुल जाती।

बी अहमदी ख़ानम उर्फ़ मुद्दी बेगम का सिन चार बरस का रहा होगा। दस्तर-ख़्वान पर शोरबा गिराना, लुक़मा डुबोने में दाल का पूरा पियाला घंगोल देना, बच्चों का शेवा है। और नफ़ीस लोग इसी वज्ह से बच्चों को अलग खिलाते हैं। गो कहते यही हैं कि जवानों वाला खाना बच्चों को नुक़्सान करता है। मगर तहसीलदार साहब को इसमें लुत्फ़ आता था। उधर दस्तर-ख़्वान पर बैठे और इधर बी मुद्दी की तलब हुई। रफ़्ता-रफ़्ता मुद्दी ख़ुद वक़्त पहचान गईं। थोड़े दिनों में मुद्दी तहसीलदार साहब ही के यहाँ रहने लगीं। या तो घर में एक तरफ़ ये, एक तरफ़ छोटा भैया और बीच में हसन अ’ली की बीबी थीं या उनकी पलंगड़ी अलग बनी। साफ़ चादर लगाई गई। छोटे-छोटे तकिए बनवाए गए। तहसीलदार साहब के पास उनकी भी पलंगड़ी बिछने लगी। जूती पहने रहने की तक़य्युद हुई कि बिछौना मैला न हो।
लड़की थी पैदाइशी सलीक़ा-मंद। एक-बार से दूसरी बार बताने की ज़रूरत नहीं होती थी। पाँच छः ही बरस के सिन में ऐसा सलीक़ा आ गया कि आधी बीबी मा’लूम होती थीं। तहसीलदार साहब के पान ख़ुद बनाती थी। दस ग्यारह बरस के सिन में जिंस तुलवाना, खाना पकवाना सब कुछ मुद्दी के हाथ हो गया था। दिन जाते कुछ देर नहीं लगती। चौधवें बरस बी मुद्दी का शबाब दमक उठा। देखने वालों का दिल चाहता कि देखा ही करें। मुद्दी भी जब बाल बनाने खड़ी होती थीं तो आईना के साथ ख़ुद भी मुतहय्यर रह जाती थीं। अब माँ को शादी की फ़िक्र हुई। तहसीलदार साहब से कहा गया। उन्होंने कहा क्या जल्दी है, हो जाएगी। मगर लड़की हसन अ’ली के भतीजे को बचपन ही से मांगी थी। उधर से भी इसरार हुआ कि जवान लड़की का अमीरों के घर में रहना अच्छा नहीं। लीजिए साहब शादी हो गई। तहसीलदार साहब ने ख़ुद तो अपने घर से शादी नहीं की मगर जहेज़ वग़ैरह ख़ूब सा दिया।

चौथी चाले के बा’द फिर वही तहसीलदार साहब के यहाँ का रहना। मुद्दी के दूल्हा भी तहसीलदार ही साहब के यहाँ आते थे। मुद्दी ससुराल कम जाती थीं। गईं भी तो खड़ी सवारी। बहुत रहीं तो एक रात नहीं तो उसी दिन वापिस आ गईं। ससुराल वाले जाहिल, शौहर भी अलिफ़ के नाम लट्ठा नहीं जानते। गो मुद्दी भी बग़्दादी क़ाएदा और अ’म के सी-पारे के आगे नहीं पढ़ी थीं, मगर फिर भी पढ़े लिखे हुए की पाली हुई थीं। उ’म्र-भर अमीरी कारख़ाना देखा था। मुद्दी का दिल ससुराल में कम लगता था। कमसिनी में ब्याह का तजुर्बा कुछ अचंभे में डाले था। शादी के बा’द अगर औ’रत पर कँवार-पने की आब नहीं रह जाती तो सुहाग की रौनक़ चेहरा चमका देती है। मगर अहमदी के चेहरा पर न इसी बात का पता चलता था न उसी का। मियाँ बीबी के बरताव का हाल दो-चार दिन में क्या खुलता। मगर किसी ख़ास ख़ुशी या इत्मीनान का अंदाज़ उसमें भी नहीं दिखाई देता था। कुछ ही दिनों में ये भी न रह गया और खुल्लम-खुल्ला ना-ख़ुशी के आसार ज़ाहिर होने लगे।
शौहर साहब भी कुछ दबे-दबे से थे। तहसीलदार साहब के यहाँ अगर वो भी अपनी शौहरियत का बरतर दर्जा बरत नहीं सकते थे। ख़ुद अपनी हेच मर्ज़ी और बीबी की बुलंदी उनकी नज़र में खटकती थी। ज़रूरतें मजबूर करती थीं। नई-नई बीबी। कुछ रुपया पैसा भी हाथ आ जाता था। इसलिए चुप थे। एक दिन ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि मुद्दी जो सोकर उठीं तो एक छड़ा ग़ाइब। बिस्तर पर इधर-उधर देखा, दलाई झाड़ी, पाएँती झुक के देखा, घर में इधर-उधर तलाश किया मगर कहीं न मिला।

ना-मा’लूम क्या समझ कर चुप हो गईं। दोपहर के क़रीब माँ से ज़िक्र किया। माँ ने शोर मचा दिया। तहसीलदार साहब तक ख़बर हुई। उन्होंने सुनते ही कह दिया कि ये हरकत सिवाए मुद्दी के दूल्हे के और किसी की नहीं हो सकती। ये भी कहा कि उसके जुआ खेलने की ख़बर भी मुझ तक पहुँच चुकी है। लीजिए साहब शौहर भी रूठ गए। दो-चार दिन के बा’द रुख़्सती का इसरार हुआ। मगर छड़े वाली बात पकड़ कर मुद्दी के माँ बाप ने इनकार कर दिया। एक रोज़ मुद्दी के शौहर ने हसन अ’ली के घर आकर बहुत सख़्त-सुस्त सुनाया। और ग़ुस्से में ये भी कहा कि हरामज़ादी को झोंटे पकड़ कर घसीटता न ले जाऊँ तब ही कहना। उस वक़्त तक मुद्दी ने किसी की ज़ुबाँ-दारी नहीं की थी। लेकिन अब वो भी फ्रंट हो गई। और ऐसी फ्रंट हुई कि मरते दम तक फिर मुँह न देखा। हसन अ’ली ने भी ख़याल किया। दामाद मुम्किन है कुछ शुहदा-पन ही कर बैठे इसलिए मुद्दी का पूरे तौर से तहसीलदार ही साहब के यहाँ रहना अच्छा है। शौहर साहब हमेशा के लिए मुअत्तल कर दिए गए।
जब से मुद्दी की शादी हो गई थी, तहसीलदार साहब कुछ चुप से रहते थे। इस वाक़िए’ के बा’द वो भी बहाल हो गए। मुद्दी के शौहर ने अपनी सफ़ाहत से ये भी कहा कि तहसीलदार साहब ने उससे आश्नाई कर रखी है।

मगर इसको कौन बावर करता। हसन अ’ली वाली बात पर तो लोग हँसी मज़ाक़ भी करते थे। मगर इस बात को किसी ने झूटों भी यक़ीन न किया। अलबत्ता तहसीलदार साहब तजरबा-कार आदमी थे। उन्होंने मौत-ज़िंदगी का ख़याल करके मुद्दी के लिए अलाहिदा घर और कुछ बूदगी का इंतिज़ाम करना शुरू’ किया। इस वाक़िए’ के दूसरे ही साल के अंदर तहसीलदार साहब का इंतिक़ाल हो गया। तहसीलदार साहब मरहूम के या तो कोई नहीं था या यक-बारगी ना-मा’लूम कितनी वारिस पैदा हो गए और आपस में मुक़द्दमा बाज़ी शुरू’ हो गई।
बी मुद्दी ने भारी पत्थर चूम के छोड़ा। उठकर अपने घर चली आईं। तख़्त, चारपाइयों, अलमारियों पर न उनका हक़ था न उन्होंने दावा किया। नक़द जो कुछ तहसीलदार साहब उनको दे गए हों वो कौन ले सकता था। हाथ नाक गले में जो कुछ था वो उनका था ही। मुद्दी ने हसन अ’ली की सलाह से ये तरीक़ इख़्तियार किया कि अपने तबक़े से ऊँची हो कर रहना पसंद न किया बल्कि जिस हैसियत के लोग उनके माँ-बाप थे उसी बिरादरी में रहीं। अलबत्ता रुपया पैसा और सलीक़ा होने की वज्ह से अपने तबक़े में यूँ रहीं जैसे माली की डाली में सब फूलों में गुलाब का फूल होता है।

तहसीलदार साहब के साल ही भर बा’द ताऊ’न बड़े ज़ोरों का पड़ा। इसमें मियाँ हसन अ’ली और उनकी बीबी भी चल बसीं। अब सिर्फ़ बी मुद्दी और उनका छोटा भाई रह गए। इस वक़्त तक मुद्दी ने जो कुछ अच्छा बुरा किया होगा उसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उनके ऊपर न थी क्योंकि हर मुआ’मले में तहसीलदार मरहूम और उससे कम दर्जे तक उनके बाप की राय शामिल रहती थी। इस के बा’द जो कुछ पेश आया वो अलबत्ता उनके दिल-ओ-दिमाग़ का नतीजा था। मुद्दी का बरताव हर शख़्स से उ’म्दा था। कोई शाकी न था बल्कि अड़ोस-पड़ोस की औ’रतें हर वक़्त उनकी घर में मौजूद रहती थीं। उनसे भी जो हो सकता था आने-जाने वालियों के साथ सुलूक करती थीं। घर में कपड़ा सीने की मशीन थी। दिन-भर लोगों के कपड़े मुफ़्त सिया करती थीं। किसी को अगर रुपये दो रुपये की ज़रूरत होती तो वो भी क़र्ज़ के नाम से दे दिए। जिस किसी का कहीं ठिकाना न लगे वो बी मुद्दी के यहाँ चला आए। रोटी अपनी पकाए, दाल बी मुद्दी की हांडी से ले-ले। पान-पत्ता भी बी मुद्दी के पानदान से खाए।
इसी ज़माने में एक औ’रत ना-मा’लूम कहाँ की बाहर से आई। उसको भी बी मुद्दी ने रख लिया, औ’रत सलीक़ा-मंद थी। अपना बार भी उन पर नहीं डालती थी। बल्कि पैसे दो पैसे का सुलूक ख़ुद ही कर देती थी। कुछ अँगूठियाँ, कुछ कीलें, लैस, साबून वग़ैरह बेचती थीं। सुब्ह हुई और बुर्क़ा ओढ़ कर निकल गईं। दोपहर को आईं। खाना खाया, आराम किया। इसके बा’द फिर निकल गईं। शाम को लौटीं। ये मुसम्मात आई थीं तो ये कह कर कि दो-चार दिन में सौदा करके दूसरी जगह चली जाएँगी, मगर मुद्दी से कुछ ऐसी परगत मिली कि घर की तरह रहने लगीं। मुहब्बत-ओ-यगानगी की वो पेंगें बढ़ीं कि सगी बहनें मात थीं। सूरत शक्ल की तो मा’मूली थीं मगर क़द-कशीदा था। जब बुर्क़ा ओढ़ कर रास्ता चलती थी तो मा’लूम होता था कि मर्द भेस बदले हुए चला आता है। चाल-ढाल क़द के इ’लावा भी कुछ और बातें मर्दों की ऐसी थीं। मसलन हाथ पाँव के देखते सीना कम था। कमर, कूल्हे, पाँव की चौड़ी चौड़ी एड़ियाँ भी औ’रतों की ऐसी न थीं।

थोड़े ही दिनों में ये हो गया कि दिन को तो वैसा ही मजमा रहता था मगर रात को दूसरी औ’रतें कम रहने लगीं। जब मुँह नहीं पाया तो पराए घर में कैसे ठहरतीं। पहले तो औ’रतों में सरगोशियाँ हुईं फिर मुहल्ले में हर शख़्स उसी का ज़िक्र करने लगा। मगर मुद्दी और उस औ’रत ने बजाए तरदीद करने के एक आज़ादाना बे-पर्वाई का अंदाज़ इख़्तियार कर लिया। उस औ’रत ने कहा हम लोग किसी की बहू बेटी हैं या फिर से निकाह करना है जो हर शख़्स के आगे क़समें खाते क़ुरआन उठाते फिरें। दुनिया अपनी राह हम अपनी राह। मुद्दी ने कहा अगर हमारे कोई वाली-वारिस होता तो किसी की मजाल पड़ी थी कि ऐसी बात कहता। ज़माना गुज़रता गया और लोगों का शक यक़ीन से बदलता गया। क़ायदा है कि पंच-बिरादरी से अगर दब जाओ तो वो और दबाते हैं। अगर मुक़ाबले पर तैयार हो जाओ तो लोग अपनी नेकी की वज्ह से अक्सर मुआ’फ़ भी कर देते हैं। यही हाल उन दोनों का हुआ कि न किसी ने फिर पूछ-गिछ की न उन्होंने इनकार की ज़हमत उठाई।
लिखने वाले को इग़्लाम मुसाहक़े के ज़िक्र में कोई मज़ा नहीं आता। मगर इसी के साथ इन चीज़ों का ज़िक्र करने से डरता भी नहीं। अगर ये चीज़ें दुनिया में होती हैं तो चुप रहने से इनमें इस्लाह न होगी। न ये तय हो सकेगा कि कहाँ तक ये चीज़ें फ़ितरी हैं। और कहाँ तक असबाब-ए-ज़माना से पेश आती हैं। किसी जोलाहे के पाँव में तीर लगा था। ख़ून बहता जाता था। मगर दुआएँ माँग रहा था कि अल्लाह करे झूट हो।

हमारे क़िस्से के लोग दर-अस्ल हैवलॉक एलिस और फ्राइड नहीं पढ़े हैं। इस वज्ह से मजबूरन हमें इन मसाइल पर बेहस करना पड़ी। डाक्टरों का ख़याल है कि हर औ’रत में कुछ जुज़ मर्द का होता है और हर मर्द में कुछ जुज़ औ’रत का। जो जुज़ ग़ालिब होता है उसी तरह के ख़यालात और अफ़आ’ल होते हैं। मर्दाना क़िस्म की औ’रतें और ज़नाना क़िस्म के मर्द हर जगह दिखाई देते हैं। मुम्किन है बा’ज़ उनमें ऐसे हों जिनको फ़ितरतन अपने ही जिंस से तअ’ल्लुक़ात अच्छी मा’लूम होते हों। मगर इसमें भी कलाम नहीं कि अस्बाब-ए-ज़माना से भी लोग इस राह लग जाते हैं। बजाए इस्लाह की कोशिश के हर मुआ’मले में यही राय क़ाएम करना कि ये क़ुदरती तक़ाज़ा से है और इसीलिए इस्लाह की ज़रूरत नहीं, हमारी समझ में नहीं आता। अलबत्ता ऐसे फे़’ल की जिसमें समाज का कोई नुक़्सान न होता हो तो क़ानूनी सज़ा होनी चाहिए या नहीं ये दूसरा मसअला है।
अच्छा अब क़िस्सा सुनिए। मुद्दी और उस औ’रत से दो साल दोस्ती रही। इसके बा’द लड़ाई हो गई। किस बात पर बिगाड़ हो गया ये किसी को मा’लूम नहीं। वो जिस राह आई थी उसी राह चली गई। बी मुद्दी उजड़ी-बुजड़ी रंडाया खेलने लगीं। जोइंदा याबिंदा, थोड़े दिनों के बा’द एक और हम-जिंस मिल गईं। इसके बा’द और भी मिला कीं मगर,

न बे-वफ़ाई का डर था न ग़म जुदाई का
मज़ा मैं क्या कहूँ आग़ाज़-ए-आश्नाई का

वो पहली सी बात फिर न नसीब हुई। अब रुपया भी कम रह गया था। इसलिए आमदनी बढ़ाने की भी फ़िक्र हुई। बी मदीने तहसीलदार के आ’ज़ा के आगे हाथ बढ़ाया न फिर से शादी की हवस की। बल्कि ख़ुद काम करने पर तैयार हो गईं। पराठे कबाब बनाना शुरू’ किए, जाड़ों की फ़स्ल में अंडे और गाजर का हलवा बनाने लगीं। कुछ औ’रतों की ज़रूरत का बिसात-ख़ाना भी मंगवा लिया। चिकन क्रोशिया का भी ढच्चर डाला। बेचने वालों की कमी न थी। इर्द-गिर्द की लड़कियाँ और औ’रतें सौदा बे् लाती थीं। और हक़-उल-मेहनत से ज़ियादा हिस्सा पाती थीं। बी मुद्दी को सौदागरी का सबसे बड़ा गुर नहीं याद था। या’नी जो आदमी बहुत से काम साथ ही करता है वो कोई काम नहीं कर सकता। नतीजा ये हुआ कि ख़र्च आमदनी से ज़ियादा ही रहा। यहाँ तक कि मकान भी गिरवी रखना पड़ा।
रुपये के जाने के बा’द तौक़ीर में भी फ़र्क़ आ जाता है। मगर उसकी शाइस्तगी, रख-रखाव ऐसा था कि फिर भी लोगों की नज़र में हल्की न हुई। कपड़े अब भी सलीक़े के पहनती थी। गाढ़ा पर्दा कभी नहीं था। आज भी सड़क पर मारी-मारी नहीं फिरती थी। तनख़्वाह वाले नौकर कभी नहीं थे। आज भी काम-काज करने वाले आसानी से मिल जाते थे। मगर इक़बाल-मंदी में घुन बहुत दिनों से लग चुका था। इसलिए चेहरे की आब रुख़स्त हो चुकी थी।

ज़माना बदल जाने से मिज़ाज में भी फ़र्क़ आ गया था। एक दिन उनके घर में कई औ’रतें जम्अ’ थीं। किसी ने कहा बिन मर्द की औ’रत किस गिनती-शुमार में है।
बी मुद्दी बोल उठीं, “सच कहती हो बहन।”

ऐसी बात उनके मुँह से कभी नहीं सुनी गई थी। ये सुनकर बा’ज़ ने दूसरों को इशारा किया। बा’ज़ ने इत्तिफ़ाक़ किया। दो-एक ऐसी भी थीं जो मुद्दी का मुँह तअ’ज्जुब से देखने लगीं। ये वो थीं जिन्होंने मुद्दी के मुँह से मर्द का नाम बिला नाक-भौं चढ़ाए उ’म्र में नहीं सुना था।
ज़माना गुज़रता गया मगर बी मुद्दी के दिन न फिरने थे न फिरे। कुछ दिनों के बा’द एक शाह साहब आए। बहुत मरजा’ ख़लाइक़ थे। अ’क़ीदत-मंदों का हुजूम हर वक़्त लगा रहता था। बी मुद्दी भी दो-तीन बार कबाब पराठे की नज़र-नियाज़ पेश कर चुकी थीं। इतने में ख़बर उड़ी कि शाह साहब हज को जाएँगे। हमेशा मुर्ग़-पुलाव तवक्कुल पर खाया किए। अब हज भी तवक्कुल पर करेंगे। जिस दिन शाह साहब चले लोगों ने देखा मद्दी भी दामन से लगी चली जा रही हैं और लोगों से कहा-सुना मुआ’फ़ करा रही हैं। जो कुछ बची-बचाई पूँजी थी वो बेच कर नक़द कर लिया। बाक़ी के लिए शाह साहब की ज़ात और तवक्कुल का तोशा काफ़ी ठहरा। हज से वापसी पर वतन नहीं आईं बल्कि शाह साहब ही के क़दमों से लगी रहीं। शाह साहब अपने वक़्त के बलअम-ए-बाऊर थे। जी चाहे अलगनी पर डाल दीजिए। चाहे चादर की तरह कांधे पर लटका लीजिए। मुद्दी में जवानी की कन्नी गलने में अब भी देर थी। मगर शाह साहब को देखकर ख़्वाब में भी आश्नाई का ख़याल नहीं होता था। लेकिन अगर ग़ौर कीजिए तो पैर भी एक तरह का शौहर ही होता है जिस पर मुरीद उसी तरह तकिया करता है जैसे औ’रत मर्द पर।


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