वक़ार महल की छतें गिर चुकी हैं लेकिन दीवारें जूं की तूं खड़ी हैं। जिन्हें तोड़ने के लिए बीसियों जवान मज़दूर कई एक साल से कुदाल चलाने में मसरूफ़ हैं। वक़ार महल न्यू कॉलोनी के मर्कज़ में वाक़्य है न्यू कॉलोनी के किसी हिस्से से देखिए। खिड़की से सर निकालिए, रोशन दान से झांकिए। टियर्स से नज़र दोड़ाईए। हर सूरत में वक़ार महल सामने आ खड़ा होता है। मज़बूत, वीरान, बोझल, रोबदार, डरावना सर-बुलंद, खोखला। अज़ीम। ऐसा मालूम होता है कि सारी न्यू कॉलोनी आसेब-ज़दा हो और वक़ार महल आसीब हो। नौजवान देखते हैं तो दिलों में ग़ुस्सा उभरता है। न्यू कॉलोनी के चेहरे का फोड़ा। रिसती बस्ती कॉलोनी में आसारे-ए-क़दीमा। चेहरे नफ़रत से बिगड़ जाते हैं , हटाओ उसे। लेकिन वो महल से अपनी निगाहें हटा नहीं सकते। बच्चे देखते हैं तो हैरत से पूछते हैं। डैडी! ये कैसी बिल्डिंग है? भद्दी, बेढब, मोटी मोटी दीवारें , ऊंची ऊंची छतें , तंग तंग खिड़कियाँ और डैडी क्या लोहे की बनी हुई है। इतने सारे मज़दूरों से भी नहीं टूट रही। बड़े बूढ़े महल की तरफ़ देखते हैं तो&. लेकिन बड़े बूढ़े तो इस तरफ़ देखते ही नहीं। उन्हें देखने की क्या ज़रूरत है। वो तो रहते ही महल में हैं चोरी छिपे। वो डरते हैं कि किसी पर भेद खुल ना जाये। कॉलेज के लड़के जो इस खोखले महल के ज़ेर-ए-साया पल कर जवान हुए हैं , वक़ार महल का मज़ाक़ उड़ाते हैं। अब तो ख़ाली दीवारें रह गई हैं। कुछ दिनों की बात और है। लेकिन उनके दलों से आवाज़ उभरती है और वो तालियाँ पीटने लगते हैं। क़हक़हे लगाने लगते हैं ताकि वो आवाज़ उनमें दब कर रह जाये। बहरहाल न्यू कॉलोनी का हर नौजवान वक़ार महल से एक पर-असरार लगाओ महसूस करता है। अगरचे वो समझता है कि ये लगाओ नहीं लॉग है। लेकिन उसे पता नहीं है कि लॉग का एक रूप है। ढका छिपा, शिद्दत से भरा लगाओ। वक़ार महल सदीयों से वहां खड़ा है। कोई नहीं जानता कि वो कब तामीर हुआ था। जब से लोगों ने होश सँभाला था, उसे वहीं खड़े देखा था। पहले तो लोग वक़ार महल पर फ़ख़र किया करते थे, फिर नई पोद ने मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया। फिर किसी मंजिले ने बात उड़ा दी कि महल की दीवारों में दराड़ें पड़ चुकी हैं। छतें बैठ रही हैं। वो न्यू कॉलोनी के लिए ख़तरा है। इस पर कमेटी वाले आ गई। उन्होंने चारों तरफ़ से महल की नाका बंदी कर दी और जगह जगह बोर्ड लगा दिए। ख़बरदार&. दूर रहिए। इमारत गिरने का ख़तरा है। फिर बीसियों मज़दूर कुदाल पकड़े आ पहुंचे और महल छतों और दीवारों को तोड़ तोड़ कर गिराने लगे। पता नहीं बात किया है कि साल-हा-साल से इतने सारे मज़दूर लोग कुदाल चला रहे हैं। उसे तोड़ने में लगे हुए हैं लेकिन फिर भी महल का कुछ नहीं बिगड़ा। वो जूं का तूं खड़ा है। पता नहीं किस मसालहे से बना हुआ है कि उसे मुनहदिम करना आसान नहीं। बहर-ए-हाल। सारा दिन मज़दूर कुदाल चलाते रहते हैं। न्यू कॉलोनी में आवाज़ें गूँजती रहती हैं। ठुका ठक, ठक, ठुका ठक ठक। ये ठक ठक जफ़ी की रानों में गूँजती है। इस की लर्ज़िश से कोई पोशीदा स्प्रिंग खुलता है। कोई पुर-असरार घड़ी चलने लगती है। इस की टुक-टुक दिल में पहुँचती है। दिल में लगा हुआ एमपलीफ़ायर उसे सारे जिस्म में उछाल देता है। एक भूंचाल आ जाता है। छातीयों से कच्चा दूध रिसने लगता है। होंट लम्स की आरज़ू से बोझल हो कर लटक जाते हैं। नसें तन जाती हैं और सारा जिस्म यूं बजने लगता है जैसे सारंगी हो। इस पर जफ़ी दीवाना-वार खिड़की की तरफ़ भागती है और वक़ार महल की तरफ़ यूं देखने लगती है जैसे इस से पूछ रही हो, अब में क्या करूँ ? वालदैन ने जफ़ी का नाम यासमीन रखा था। बचपन में सब उसे यासमीन कहते थे फिर जब वो हाईस्कूल में पहुंची तो उसने महसूस किया कि यासमीन दक़यानूसी नाम है। इस से पुराने नाम की बू आती है। ये नाम है भी तो सल्लू टमपो। ढीला ढीला जैसे चूलें ढीली हूँ। लिहाज़ा उसने यासमीन की चूलें ठोंक कर उसे जिस मन कर दिया। फिर जब वो कॉलेज में पहुंची तो उसे फिर से अपने नाम पर ग़ुस्सा आने लगा। लू में क्या फूल हूँ कि जिस मन कहलाऊँ। मैं क्या आराइश की चीज़ हूँ। मैं तो एक माडर्न गर्ल हूँ और माडर्न गर्ल फूल नहीं होती, आराइश नहीं होती, ख़ुशबू नहीं होती। ये सब तो दक़यानूसी चीज़ें हैं। माडर्न गर्ल तो एक्टिव होती है, स्मार्ट होती है। जीती-जागती, चलती फुर्ती। जिस पर ज़िंदगी बीतती नहीं बल्कि जो ख़ुद ज़िंदगी बीतती है। लिहाज़ा उसने अपना नाम जिस मन से जफ़ी कर लिया। जफ़ी, फ़ुट, फटाफट फ़ौरन। ये नाम कितना फ़आल था। कितना स्मार्ट। इस में ज़िंदगी की तड़प थी, फिर उस नाम के ज़ेर-ए-असर जल्द ही इस में ये ख़ाहिश उभरी कि कुछ हो जाये। अभी हो जाये। अभी हो जाये फ़ौरन तो इबतिदा थी। बिलआख़िर जफ़ी चाहने लगी कि कोई ऐसी बात ना हो जो होने से रह जाये। लेकिन इस रोज़ जब कि कुछ बल्कि बहुत कुछ हो गया था। यहां तक हो गया था जिसकी उसे तवक़्क़ो ना थी। लेकिन वो ख़ुशी महसूस नहीं कर रही थी। उल्टा वो तो हाथ मिल रही थी कि क्या हो गया। पता नहीं इस रोज़ जफ़ी को क्या हो गया था। इस की आँखें पुरनम थीं। वो हसरत आलूदा निगाहों से वक़ार महल की तरफ़ देख रही थी। इस का जी चाहता था कि दौड़ कर वक़ार महल में जा पनाह ले। इस रोज़ जैसे जफ़ी फिर से यासमीन बन गई थी। अगरचे शऊरी तौर पर जफ़ी को वक़ार महल से सख़्त चिड़ थी और वो उसे अपने रास्ते की रुकावट समझती थी लेकिन दिल की गहिराईयों में वक़ार महल उस के बुनियादी जज़बात पर मुसल्लत था। इन जाने में वो उस की ज़िंदगी पर यूं साया किए हुए था जैसे बड़ का बूढ़ा दरख़्त किसी गुलाब की झाड़ी पर साया किए हुए हो। जफ़ी वक़ार महल के ज़ेर-ए-साया पैदा हुई थी। वहीं खेल खेल कर जवान हुई थी। इस की कोठी एवरग्रीन वक़ार महल के अक़ब में थी। इस की तमाम खिड़कियाँ महल की तरफ़ खुलती थीं। दोनों टियर बसें उधर को निकली हुई थीं। बचपन में जब वो यासमीन थी तो वक़ार महल उस के लिए जाज़िब-ए-नज़र और काबुल फ़ख़र चीज़ थी। फिर जूँ-जूँ वो जवानी होती गई, वक़ार महल उसे बोसीदा इमारत नज़र आने लगी जो न्यू कॉलोनी के रास्ते की रुकावट थी। इस के दिल में ये गुमान बढ़ता गया कि वक़ार महल नौजवानों की आज़ादी कुचलने के लिए तामीर हुआ था। वो इस बात से बे-ख़बर थी कि गिरते हुए वक़ार महल का साया उस के दिल की गहिराईयों पर छाया हुआ है और इस की ज़िंदगी के हर अहम वाक़े में वक़ार महल का हिस्सा था। मसलन जब इस में जवानी की अव्वलीं बेदारी जागी थी तो गिरते हुए वक़ार महल की ठक ठक ने ही तो उसे झिंझोड़ कर जगाया था। उसे वो दिन अच्छी तरह याद था। ये इन दिनों की बात है जब वो अभी जिस मन थी, जफ़ी नहीं बनी थी। अगरचे उस की बाजी इफ़्फ़त मुद्दत से इफ़्फ़त से उफ़ और फिर उफ़ से अफ़ई बन चुकी थी, चूँकि उफ़ बट का इमकान ख़ारिज हो चुका था। इन दिनों बाजी सारा सारा दिन अपने बैड पर औंधे मुँह पड़ी रहती थी। पता नहीं उसे क्या हो गया था। अफ़ई बाजी तो बैड पर ढेर होने वाली ना थी। इस की तो बोटी बोटी थिरकती थी। अभी यहां खड़ी है, अभी बाग़ीचे में जा पहुंची। लू वो टियर्स पर टहल रही है। हाएं वो तो चली भी गई। किसी गुट टू गेदर में , किसी फंक्शन में , किसी पार्टी में , एक जगह टिक कर बैठना अफ़ई बाजी का शेवा ना था। फिर पता नहीं , इन दिनों उसे क्या हो गया था कि पलंग पर गठड़ी बन कर पड़ी रहती थी। जिस मन समझती थी कि अफ़ई बाजी में वास्को डे गामा की रूह है। उसे ख़बर ना थी कि वास्को डी गामा ने अमरीका दरयाफ़त कर ली है और अब थक-हार कर पड़ गई है। इन दिनों मम्मी बार-बार अफ़ई के बेडरूम के दरवाज़े से छुप-छुप कर झाँकती और हैरत से बाजी की तरफ़ देखती रहती। वो बाजी से पूछ नहीं सकती थी। पूछना अलग रहा, मम्मी तो बाजी से बात नहीं कर सकती थी। कैसे करती बात, बात करती तो बाजी तुनुक कर कहती। मम्मी डार्लिंग, आप नहीं समझतीं , आप ना बोलीं। वाक़ई मम्मी नहीं समझती थी। कैसे वो तो बे-चारी सीधी-सादी अम्मी थी। जिसे हालात ने ज़बरदस्ती मम्मी बना दिया था। जब फ़ातिमा बेगम की शादी मुहम्मद उसमान से हुई थी तो वो अस्सिटैंट थे, फिर हालात ने सुरअत से पल्टा खाया और वो मैनेजर हो गए और अब जनरल मैनेजर थे। इस के साथ ही वो मुहम्मद उसमान से ऐम ओसमान हो गए थे। लेकिन फ़ातिमा बेगम ही रही थी। वो फ़ातिमा ज़्यादा थी और बेगम कम-कम। तालीम सरसरी थी। सोशल स्टेटस की भारी भरकम गठड़ी सर पर आ पड़ी। फिर भी जूं तूं कर के उसने रहन सहन में तबदीली के मुताबिक़ अपने आपको ढाल लिया था। लेकिन वो अपनी शख़्सियत को बेगम का रंग ना दे सकी थी। इस पर ऐम ओसमान अगर बेगम से मायूस हो गए थे तो इस में उनका कोई क़सूर ना था। फिर जो उन्होंने घर से नाता तोड़ लिया और कलब में वक़्त बसर करने लगे तो ये एक क़ुदरती अमर था। इस के इलावा कलब में बहुत सी बेगमात आती थीं। जिन पर चौखा रंग चढ़ा हुआ था। इस के बाद फ़ातिमा बेगम घर में यूं कोने से लग गई जैसे न्यू कॉलोनी का रॉबिन्स करोसो हो। फिर लड़कीयां जवान हुईं तो उन्होंने उसे बिलकुल ही बेज़बान कर दिया। लड़कीयों ने ज़बरदस्ती इसे मम्मी बना लिया। मम्मी के लफ़्ज़ से फ़ातिमा को बड़ी चिड़ थी। कितना नंगा लफ़्ज़ था। इस लफ़्ज़ से नंगे पिंडे की भड़ास आती थी लेकिन वो एहतिजाज नहीं कर सकती थी। जब अपनी जाईआं बार-बार कहीं। मम्मी डार्लिंग, आपको पता नहीं , आप ना बोलीं। प्लीज़ तो माँ की ज़बान पर महर ना लगे तो क्या हो। पहले तो फ़ातिमा को शक पड़ने लगा कि शायद वाक़ई उसे पता नहीं। फिर उसे यक़ीन आ गया कि उसे पता नहीं। वो जानती, कभी-कभार उस के दिल में ख़ाहिश पैदा होती कि जाने समझे, बोले यान ह बोले पर कम अज़ कम जान तो ले। इन दिनों इसी ख़ाहिश के ज़ेर-ए-असर फ़ातिमा अफ़ई के कमरे के दरवाज़े से कान लगा कर खड़ी रहती थी। उसे समझ में नहीं आता था कि ये कैसे हो सकता है अफ़ई औंधे मुँह बिस्तर पर पड़ी रहे। यूं पड़ी रहे जैसे मसालहे के बने हुए मुन्ने के आज़ा को जोड़ने वाला धागा टूट गया हो। फिर पता नहीं किया हुआ। शायद फ़ातिमा को बात समझ में आ गई। वो दीवाना-वार भागी। ग़ैर अज़ मामूली वो सीधी अफ़ई के डैडी के पास पहुंची। फिर ग़ैर अज़ मामूल मियां बीवी आपस में सरगोशियाँ करते रहे। इन सरगोशियों के दौरान में मियां अहम अहम करते सुने गए। इतना अहम अहम करना तो उन्होंने मुद्दत से छोड़ रखा था। उनके अहम अहम करने से मालूम होता था जैसे घर में फिर से मुहम्मद उसमान आ गया हो। कुछ देर बाद कमरे का दरवाज़ा खुला। मुहम्मद उसमान बाहर निकले। उनके सर पर टोपी थी और हाथ में छड़ी। पीछे पीछे फ़ातिमा थी। वो बड़े वक़ार से क़दम उठाते हुए सीढ़ीयां चढ़ने लगे। अफ़ई के बेडरूम में दाख़िल हो कर उन्होंने अंदर से कुंडी चढ़ा दी। जिस मन ये सब तफ़सीलात कानी आँख से देख रही थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। डैडी और अहम अहम कर के बात करें। फिर उन्होंने टोपी क्यों पहन रखी थी और उनके हाथ में छड़ी क्यों थी। फिर बाजी के कमरे से मुहम्मद उसमान की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। उनकी आवाज़ में बड़ा तहक्कुम था या शायद मिन्नत थी। फिर बाजी की ग़ुस्से भरी आवाज़ सारे घर में गूँजी। बच्चा मेरा है। मैं उसे अपनाऊंगी। देखूँगी मुझे कौन रोकता है। जिस मन सोचने लगी। या अल्लाह बाजी किस बच्चे की बात कर रही है। कमरे में तो सिर्फ बाजी, मम्मी और डैडी थे। बच्चा कहाँ था। फिर ऊपर कोई किसी को ज़िद-ओ-कोब कर रहा था। छड़ी चलने की आवाज़ आ रही थी। साथ ही बाजी चीख़ रही थी। रो रही थी। कराह रही थी। हुए बेचारी बाजी। जिस मन के दिल में डैडी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा खोलने लगा। फिर पटाख से दरवाज़ा खुला और डैडी और अम्मी सीढ़ीयां उतर रहे थे। लेकिन वो इस क़दर घबराए हुए क्यों थे&. अफवा&. डैडी का चेहरा लहूलुहान हो रहा था। अरे डैडी ने स्टिक से पीटा तो बाजी को था फिर डैडी का अपना चेहरा क्यों सूजा हुआ था। जगह जगह से ख़ून रस रहा था और वो इस क़दर खोए हुए क्यों थे कि कमरे में दाख़िल होने की बजाय सीधे कोठी से बाहर निकल गए थे। जिस मन उनके पीछे पीछे गई थी। धड़ा दड़ा ड़ाम&. एक ज़बरदस्त धमाका हुआ। चारों तरफ़ से शोर उठा। वक़ार महल की छत गिर गई। वक़ार महल की छत गिर गई। गर्द-ओ-ग़ुबार का एक बादल उठा और उसने न्यू कॉलोनी को अपनी लपेट में ले लिया। इसी शाम को बाजी हमेशा के लिए घर छोड़कर चली गई। हाँ जिस मन को वो दिन अच्छी तरह याद था। इस हादिसा के बाद वो रोज़ खिड़की में खड़ी हो कर सोचती रही कि बाजी घर छोड़कर क्यों चली गई थी और इस रोज़ वो किस बच्चे की बात कर रही थी और डैडी का मुँह लहूलुहान क्यों था वक़ार महल की छत क्यों गिरी थी। वो वक़ार महल की तरफ़ देखती रहती और सोचती रहती। देखती और सोचती रहती। ग़ालिबन वो महसूस करती थी कि वक़ार महल इस राज़ से वाक़िफ़ था। फिर एक रोज़ जब वो खिड़की में खड़ी थी तो किसी ने चिल्ला कर कहा। हाई वो डर कर पीछे हट गई। अगले दिन फिर हाई की आवाज़ आई। उसने अपने आपको सँभाला। फिर चारों तरफ़ देखा लेकिन कोई नज़र ना आया। तीसरे दिन वो हाई उस के सामने आ खड़ी हुई। दो छोटी छोटी मूँछें नीचे को लटक रही थीं जिसमें से चिट्टे सफ़ैद दाँत चमक रहे थे। ऊपर दो चिन्धयाई सी आँखों में से गलीड आई चांद मारी कर रही थी और इस के ऊपर बाल ही बाल, बाल ही बाल। पहली मर्तबा हाई को देखकर वो सख़्त घबरा गई। इस का जी चाहा कि शर्मा कर मुँह मोड़ ले। जिस तरह वो माह-रू शर्मा कर मुँह मोड़ लिया करती थी। माह-रू गौरी चिट्टी पठानी थी जो अपने बाप के साथ वक़ार महल से मुल्हिक़ा आउट हाऊस में रहती थी। इस का बाप वक़ार महल का चौकीदार था और अब महल के मलबे की रोटी हांडी किया करता था। माँ मर चुकी थी। सिर्फ एक छोटा भाई था। सारा दिन माह-रू इतनी गौरी थी। इतनी गौरी थी कि हर राह-रौ उसे देखकर रुक जाता। जब वो महसूस करती कि कोई उसे देख रहा है तो इस का सारा चेहरा इस क़दर गुलाबी हो जाता। जैसे किसी ने रंग की पिचकारी चला दी हो। पता नहीं , हया इस क़दर गुलाबी क्यों होती है। जिस मन ने कई मर्तबा माह-रू को शरमाते देखा था। इस का जी चाहता था कि वो भी हया के ग़ाज़े को अपना ले। लेकिन मुश्किल ये थी कि वो एक माडर्न लड़की थी। माह-रू की तरह गँवार ना थी और माडर्न गर्ल को ये जे़ब नहीं देता कि शर्मा कर मुँह मोड़ ले। उल्टा उसे तो हाई के जवाब में हाई कहना चाहीए० जब पहली मर्तबा हाई जिस मन के सामने आई तो उसने बड़ी जुरात से काम लिया और शर्मा कर मुँह मोड़ा। लेकिन इस में इतनी जुरात पैदा ना हो सकी कि जवाब में हाई कहती। दरअसल जिस मन बड़ी मुख़लिस, सच्ची और शर्मीली लड़की थी। जिस तरह सारी माडर्न गर्लज़ होती हैं , लेकिन इस का क्या-किया जाये कि इस के दिल में कई एक ख़ुश-फ़हमियाँ रची-बसी हुई थीं। जिस तरह माडर्न गर्लज़ के दिलों में ख़ुश-फ़हमी रची-बसी होती है। मसलन उसे कुछ पता ना था लेकिन वो समझती थी कि उसे सब पता है। चूँकि माडर्न गर्ल को सब पता होना चाहीए। चाहने और है में जो फ़र्क़ है उसे उस का एहसास ना था। शऊर ना था। इस का दिल बहुत से बंधनों में जकड़ा हुआ था। मगर वो समझती थी कि वो आज़ाद है। चूँकि माडर्न गर्ल पर लाज़िम है कि वो आज़ाद हो। बाज़ों से आज़ाद। लगाओ से आज़ाद, रस्मी क़ैद-ओ-बंद से आज़ाद। अगरचे ज़हनी तौर पर उसे रजत पसंदों के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त चिड़ थी जैसे कि माडर्न गर्ल को होनी चाहीए लेकिन दिल्ली तौर पर उसे अपने माँ बाप से लगाओ था। अगरचे उसे उस का शऊर ना था। शऊर कैसे होता। जब भी ऐसी सूरत-ए-हाल पैदा होती कि शऊर होने का ख़तरा लाहक़ हो तो वो अपनी तवज्जा किसी दूसरी बात में मबज़ूल कर देती। चूँकि सबसे अहम बात ये थी कि उसे ये शुबा ना पड़ जाये कि इस के बरताव की कोई तफ़सील ऐसी भी है जो माडर्न गर्ल के शायान-ए-शान नहीं। इन दिनों उसे यही फ़िक्र दामन-गीर था कि वो कोई ऐसी बात ना करे जो माडर्न गर्ल की शान के मुनाफ़ी हो। इस हाई ने उसे ख़ासा दरहम-बरहम कर दिया था। लेकिन वो ये बात तस्लीम करने के लिए तैयार ना थी कि वो दरहम-बरहम है। इतनी छोटी सी बात माडर्न गर्ल को भुला कैसे दरहम-बरहम कर सकती है। लिहाज़ा वो दरहम-बरहम नहीं थी, बिलकुल नहीं थी। पहली मर्तबा तो इस हाई ने वक़ार महल से सर निकाला था। फिर वो जगह जगह से सर निकालने लगी। जब वो कॉलेज बस में सवार होती तो वो बस स्टैंड से सर निकालती। जब जिस मन कॉलेज की ग्रांऊड में टहल लगाती तो वो पर्दा दीवार से झाँकती। जब वो मार्कीट जाती तो वो उस का पीछा करती। हाँ सूरत-ए-हाल बहुत ही ख़राब हुई जा रही थी। फिर उस के अपने जिस्म ने बग़ावत कर दी। इन दिनों वक़ार महल में मज़दूरों ने दीवारें तोड़ने का काम शुरू कर रखा था। उनकी ठक ठक सारी न्यू कॉलोनी में गूँजती रहती थी। एक दिन जब जिस मन की तबीयत ना-साज़ थी और वो बैड पर लेटी हुई इस हाई के मुताल्लिक़ सोच रही थी तो दफ़्फ़ातन वो हादिसा अमल में आ गया। सारी शरारत मज़दूरों की इस ठक ठक की थी। रोज़ तो वो ठक ठक जिस मन के कमरे की दीवारों से टकरा कर गूँजती थी, इस रोज़ ना जाने किया हुआ। वो ठक ठक सीधी जिस मन की रानों से आ टकराई और इस के जिस्म में गूँजने लगी। जिस मन के जिस्म में एक अजीब सी लर्ज़िश जागी। किसी पोशीदा स्प्रिंग में हरकत हुई। एक तनाव सा उठा उसने दिल-ए-पर दबाओ डाला। दिल के एमपलीफ़ायर ने उसे उछाला। सारे जिस्म में एक भूंचाल सा आ गया। नसें तन गईं। छातीयों से कच्चा दूध रिसने लगा। होंट लम्स की आरज़ू से बेहाल हो कर लटक गए। सारा जिस्म सारंगी की तरह बजने लगा। इस लम्हे में उसे सब पता चल गया। सब कुछ कि बाजी घर छोड़कर क्यों चली गई थी कि वो किस बच्चे की बात कर रही थी कि बच्चा कहाँ था। सब कुछ, इस रोज़ वो जिस मन से जफ़ी बन गई थी। इस के दिल में शिद्दत से आरज़ू पैदा हुई। अभी उसी वक़्त, फटाफट, जल्दी कुछ हो जाये और वो वाक़ई कुछ हो गया। इस रात जफ़ी के बेडरूम का वो दरवाज़ा आहिस्ता से खुला जो कोठी के अहाते में खुलता था और ज़ेर लॅबी आवाज़ आई&. हाई। जफ़ी तड़प कर मुड़ी। दो लटकती हुई मूंछों में चिट्टे सफ़ैद दाँत चमक रहे थे। अगले रोज़ गेनी लटकती हुई मूंछों में चिट्टे सफ़ैद दाँत निकाले। चिन्धयाई हुई मगर चढ़ जाने वाली सुर्ख़ चियूंटियों जैसी आँखें लिए सर पर काले बालों का टोकरा उठाए सदर दरवाज़े के रास्ते से एवरग्रीन में आ दाख़िल हुआ। जब गेनी पैदा हुआ तो वो लड़का था। इस की पैदाइश पर माँ बाप ने बड़ी ख़ुशीयां मनाई थीं। उन्होंने उस का नाम ग़नी रखा था। लेकिन जब वो नौजवानी और दूर जदीद में दाख़िल हुआ तो बहुत सी तबदीलीयां अमल में आ गईं। बाल बढ़कर टोकरा बन गए। मूँछें लटक गईं। मुँह पर पाउडर सुर्ख़ी की तह चढ़ गई। रंगदार क़मीज़, चमकीली सदरीयाँ , मनकों की मालाएं और जाने क्या-किया। यूं वो ग़नी से गेनी बन गया था। एवरग्रीन में गेनी की आमद से कोई हलचल पैदा ना हुई। पहले ही इस सिलसिले में अफ़ई ने बड़ी कारकर्दगी दिखाई थी। इस के ब्वॉय फ़्रैंडज़ एवरग्रीन में अक्सर आया करते थे और वो बड़े शौक़ से उनका डैडी से तआरुफ़ कराती थी। मम्मी से नहीं चूँकि मम्मी डार्लिंग तो समझती नहीं थी और उसे समझाना बहुत मुश्किल था। फ़ातिमा ने गेनी को देखा तो सेना थाम कर रह गई। अफ़ई के मुताल्लिक़ा पुराने ज़ख़म फिर से हरे-भरे हो गए। इस के दिल में अज़ सर-ए-नौ ख़दशात ने सर उठाया। लेकिन वो बोली नहीं। कैसे बोलती। रहे डैडी। डैडी की सबसे बड़ी मुश्किल ये थी कि फ़ैसला नहीं कर पाए थे कि उन्हें ऐम ओसमान बन कर जीना है या मुहम्मद उसमान बन कर। उनकी तालीम, स्टेटस और पोज़ीशन इस बात के मुतक़ाज़ी थे कि वो ऐम ओसमान बन कर ज़िंदगी गुज़ारें। इसी वजह से ख़ासी मेहनत कर के वो ऐम ओसमान बने थे लेकिन कई बार बैठे बिठाए मुहम्मद उसमान उनके दिल में यूं घर आता जैसे हाथी चीनी की दुकान में आ घिसा हो। ** मुहम्मद उसमान बड़ा सदी था। गुस्सैल था, मुँह-फट था, कटड़ था, ऐम ओसमान उसे समझाते। दलीलें देते। भई ज़माना देखो, ज़माने का रंग देखो। आज के तक़ाज़ों पर ग़ौर करो। अब ये पुरानी बातें नहीं चलेंगी लेकिन मुहम्मद उसमान अपनी बात पर उड़ा रहता। इस लिहाज़ से ऐम ओसमान भी गोया माडर्न गर्ल थे। उनकी शख़्सियत की ऊपर ली सतह पर ओसमान की झाल थी लेकिन दिल की गहिराईयों में मुहम्मद उसमान बिराजमान था। जब गेनी का तआरुफ़ ऐम उसमान से किराया गया तो मुहम्मद उसमान ने उनके कान में कहा। ध्यान करना, कहीं फिर से तुम्हें सर पर टोपी रख, हाथ में छड़ी पकड़ बेटी के कमरे में जाना ना पड़े। ऐम ओसमान को इस बात पर ग़ुस्सा आया। हट जाओ। उसने चिल्ला कर कहा। मेरा दिल परागंदा ना करो। फिर वो गेनी से मुख़ातब हो कर कहने लगे। आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई। आया करो। मिस्टर गेनी जब भी फ़ुर्सत मिले, आ जाया करो। गेनी एवरग्रीन में कभी दरवाज़े से दाख़िल ना होता। इस के लिए तो सिर्फ उक़बी दरवाज़ा ही मौज़ूं था। लेकिन जफ़ी को ये गवारा नहीं था। वो एक माडर्न गर्ल थी और माडर्न गर्ल सुलाई ताल्लुक़ रखने से नफ़रत करती है। इस से इस की आज़ाद तबीयत पर हर्फ़ आता है। इस की अना मजरूह होती है। ढके छिपे ताल्लुक़ तो वो पैदा करती हैं जिन पर बंदिशें आइद की जाती हैं। जो पाबंदीयों में जीती हैं। जफ़ी को अपना जीवन साथी भी तो तलाश करना था। जफ़ी को इस बात का इलम ना था कि गेनी ने जीवन साथी बनने या तलाश करने के मुताल्लिक़ नहीं सोचा। गेनी तो गुड टाइम और एडवंचर का मुतलाशी था। जब वो जफ़ी के मजबूर करने पर एवरग्रीन के सदर दरवाज़े से दाख़िल हुआ तो ऐडवेंचर का अंसर ही ख़त्म हो गया। ऐडवेंचर तो हमेशा उक़बी दरवाज़े से मुताल्लिक़ होता है। बाक़ी रहा गुड टाइम तो आप जानते हैं। गुड टाइम में तनव्वो का होना ज़रूरी है। एक ही सर दबाए रखने से नग़मा नहीं बनता। इस लिए जूँ-जूँ दिन गुज़रते गए। टाइम में गुड का अंसर बतदरीज कम होता गया। हत्ता कि सिर्फ टाइम ही टाइम रह गया और इस ख़ाली खोली टाइम से उकता कर गेनी हमेशा के लिए रुपोश हो गया। गेनी की रू-पोशी पर जफ़ी सारी की सारी उलट-पलट हो कर रह गई। चूँकि वो गुड टाइम की क़ाइल ना थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे, क्या ना करे। उसे पता ना था कि इन हालात में माडर्न गर्ल को क्या करना चाहीए। लिहाज़ा वो हक़्क़ी बिकी अपने कमरे में पड़ी रहती। फिर वक़ार महल की ठुका ठक ने उसे घेर लिया। वो ठक ठक उस के जिस्म में धँस गई। इंद्र जा कर तालियाँ बजाने लगी। उसे उकसाने लगी। उट्ठो, करो, उट्ठो कुछ करो। उट्ठो करो। ठक ठक, उट्ठो करो, ठक ठक। माडर्न गर्ल होने के बावजूद जफ़ी को जिस्म के तक़ाज़ों के मुताल्लिक़ कुछ पता ना था। जब वो गेनी से मिला करती थी तो उसे ये एहसास ना था कि जिस्म का तक़ाज़ा पूरा कर ही रही है। उसने तो उन जाने में गेनी को जीवन साथी बना लिया था। उसे गेनी से मुहब्बत हो चुकी थी। जब गेनी चला गया तो बात ही ख़त्म हो गई। फिर महल की खट खटास की रानों में क्यों गूँजती थी। घड़ी क्यों चलती थी। जभी तो वो परेशान थी। कई एक दिन वो परेशान रही। फिर उनके घर में हसनी आ गया और मज़ीद पेचीदगियां पैदा हो गईं। हसनी उनका नया ब्वॉय सर विण्ट था। छुटपने ही से वो कोठियों में काम करता रहा था। वहीं जवान हुआ था। माडर्न बेगमात के अंदर देख देखकर वो वक़्त से पहले जवान हो गया था। हसनी ख़ासा अप टू डेट था। कलीन शैव, स्मार्ट लक, लंबे बाल। जफ़ी ने हसनी की आमद का कोई नोटिस ना लिया। नौकर तो घर में आते-जाते ही रहते थे। कभी ख़ानसामां चला गया। कभी ब्वॉय सर विण्ट आ गया। गेनी की रूपोशी के बाद इन दिनों जफ़ी की तबीयत ना-साज़ रहती थी। इस रोज़ उसने चाय अपने कमरे में मंगवा ली। हसनी प्याली बना कर कमरे में ले गया। जब वो जफ़ी को प्याली देने के लिए झुका तो इत्तिफ़ाक़न जफ़ी ने ग़ौर से इस के चेहरे की तरफ़ देखा। पता नहीं किया हुआ। हसनी के कलीन चेहरे पर दो मूँछें उभर आएं। वो लटकने लगीं। घबराहट में जफ़ी के मुँह से ना जाने क्या निकला। हसनी उसे समझ ना सका। जी? जफ़ी को ऐसे महसूस हुआ जैसे किसी ने हाई कहा हो। इस का सर सिरहाने पर गिर पड़ा। हसनी के हाथ से प्याली छूट गई। लेकिन चाय तो बिस्तर पर गिरी थी। फ़ी क्यों शराबोर हो गई थी। फिर ये मुश्किल रोज़ की मुश्किल बन गई। जब भी हसनी जफ़ी के कमरे का दरवाज़ा खोल कर आहिस्ता से कहता। जी तो उसे महसूस होता जैसे किसी ने हाई कहा हो। वो चौंक कर मुड़ कर देखती। इस वक़्त हसनी के कलीन शैव चेहरे पर मूँछें लटक जातीं और चिट्टे सफ़ैद दाँत चमकते। सूरत-ए-हाल यहां तक आ पहुंची कि जफ़ी हसनी से डरने लगी। अव्वल तो जफ़ी अपने आपसे भी तस्लीम नहीं करती थी कि वो हसनी से डरती है। उसे इलम ना था कि वो ख़ुद से डर रही है। हसनी को अच्छी तरह इलम था कि वो डरती है। हसनी कोठियों में काम करते करते जवान हुआ था। वो माडर्न गर्ल से अच्छी तरह वाक़िफ़ था। वो उन्हें समझता नहीं था लेकिन जानता था और समझे बग़ैर जानना। जाने बग़ैर समझने से कहीं बेहतर होता है। बहरहाल हसनी को पता था कि जब मस साहिबा डरने लगे तो वो सिर्फ़ स्टेटस का डर होता है और स्टेटस का डर ऐसी बैल होती है जिसकी जड़ नहीं होती। इस लिए वो इंतिज़ार करता रहा। हसनी बार-बार बहाने बहाने जफ़ी के कमरे का दरवाज़ा आहिस्ता से खौलता और फिर मद्धम मगर प्रले आवाज़ में कहता जी&. आपने बुलाया मस साहिबा। एक रोज़ जब जफ़ी आईने के सामने खड़ी थी तो हसनी ने वही हरकत दुहराई। जफ़ी घबरा कर पीछे हटी। इस के क़दम लड़खड़ाए। वो गिरी। दो मज़बूत बाँहों ने उसे सँभाल लिया। जफ़ी ने ऊपर की तरफ़ देखा। दो लटकी हुई मूंछों में चिट्टे सफ़ैद दाँत चमक रहे थे। जफ़ी ने आँखें बंद कर लें। इस डर के मारे कि कहीं मूँछें उड़ ना जाएं। नीचे से कलीन शैव चेहरा ना निकल आए। फिर-फिर उसे याद नहीं। ठक ठक ठक ठक&. वक़ार महल की दीवारें टूट रही थीं। सुनहरा गर्द-ओ-ग़ुबार उड़ रहा था। अगरचे जफ़ी ने अपनी इज़्ज़त का तहफ़्फ़ुज़ करने के लिए कलीन शैव चेहरे पर मूँछें लगा ली थीं और यूं अपने ज़हन को मुतमइन कर लिया था लेकिन जिस्म को कैसे समझाती। जिस्म तो एक बे समझ कह कर देने वाला दहक़ान है। वो ज़हन की सियासत दानियों को नहीं समझता। झूटे रख-रखाव की हीरा फेरियों को नहीं जानता। अज़ाब और सवाब के फ़लसफ़े को नहीं जानता। वो क़दीम और जदीद के इमतियाज़ात को तस्लीम नहीं करता। जिस्म ग़लीज़ सही लेकिन मक्कार नहीं। वो साफ़ बात करता है। दो टोक बात। सीधी बात। जिस्म ने जफ़ी के कान में बात कह दी कि थ्रिल सिर्फ़ गेनी से वाबस्ता नहीं। मूँछें लगाने की तकल्लुफ़ के बग़ैर भी थ्रिल हासिल हो सकती है। जिस्म की ये ज़ेर लॅबी जफ़ी को बहुत नागवार गुज़री। अगली सुबह जब धुँदलका दूर हुआ और इस्टेट्स की दुनिया फिर से आबाद हुई तो जफ़ी की अना को बड़ा सदमा हुआ। ये मैंने क्या कर दिया। ये कैसे हो गया। एक मामूली नौकर। सारा दिन वो अपनी नज़र में गिरती रही। गिरती ही चली गई। सारा दिन वो कोशिश करती रही कि अपने आपको सँभाले। लेकिन इस रोज़ गोया यासमीन उस के दिल में आ घुसी थी। जफ़ी और यासमीन बरसर तकरार थीं। जफ़ी बार-बार कहती। चलो हो गया है तो फिर किया हुआ। इतनी छोटी सी बात प्ले ना बाँधो। यासमीन कहती। ऊनाओं। बात प्ले बाँधी नहीं जाती, वो तो बन पूछे, बिन सोचे समझे आप ही आप पले बंध जाती है। जफ़ी कहती। दिल मेला ना करो। तुम तो एक माडर्न गर्ल हो। जिन्स तो एक ज़ाती मुआमला है। उसे रोग ना बनाओ। यासमीन कहती। तुम माडर्न गर्ल नहीं हो। कोई भी माडर्न गर्ल नहीं है। सभी माडर्न गर्ल बनना चाहती हैं। चाहने और होने में बड़ा फ़र्क़ है। इस रोज़ सारा दिन जफ़ी और यासमीन में कश्मकश होती रही। सारा दिन उस के दिल की हंडिया में जफ़ी और यासमीन की खिचड़ी पकती रही। जफ़ी और यासमीन के झगड़े को सन सुनकर उस के कान पक गए। वो महसूस करती थी। जैसे वो इन दोनों से अलग-थलग हो। दफ़्फ़ातन उस के ज़हन में ख़्याल उभरा। फिर में कौन हूँ ? क्या मैं यासमीन हूँ ? नहीं मैं यासमीन नहीं। क्या मैं जफ़ी हूँ ? नहीं मैं जफ़ी भी नहीं। तो फिर में कौन हूँ ? सिर्फ में ही नहीं डैडी भी तो हैं। क्या डैडी मुहम्मद उसमान नहीं , किया वो ऐम ओसमान हैं ? नहीं तो फिर डैडी कौन हैं ? इस घर में सिर्फ एक फ़र्द मम्मी थीं जो फ़ातिमा बेगम थीं। ख़ाली फ़ातिमा बेगम जिन्हें सब मम्मी कहते थे। ना जाने कब से कह रहे थे। जिन्हें बरसों से मम्मी बनाने की कोशिशें की जा रही थीं। लेकिन वो अम्मी थीं और अम्मी ही रही थीं। घर में सिर्फ वही थीं जिन्हें इलम था कि वो कौन हैं। मैं कौन हूँ ? ये एक टेढ़ा सवाल था। पंद्रह बरस तक वो समझती रही थी कि वो यासमीन है। दो साल तक वो समझती रही थी कि जिस मन है और गुज़श्ता चार साल से वो समझ रही थी कि वो जफ़ी है लेकिन आज वो अपने आपसे पूछ रही थी कि मैं कौन हूँ। आज उस के दिल में जफ़ी और यासमीन की खिचड़ी पक रही थी। क्या मैं जफ़ी और यासमीन की खिचड़ी हूँ। नहीं नहीं। ये नहीं हो सकता। मैं खिचड़ी नहीं हूँ। मैं कभी खिचड़ी नहीं बनूंगी। मेरी एक शख़्सियत है। मेरा एक सलफ़ है। मैं यासमीन बन सकती हूँ। जफ़ी बन सकती हूँ लेकिन खिचड़ी नहीं। कभी नहीं , कभी नहीं। इस के सामने अफ़ई आ खड़ी हुई। मैं अफ़ई हूँ। वो सेना उभार कर बोली। ख़ालिस अफ़ई। नहीं ये झूट बोलती है। यासमीन ने कहा, अगर ये अफ़ई होती तो कभी घर छोड़कर ना जाती। इस चख़ चख़ से घबरा कर जफ़ी उठ बैठी और खिड़की में जा खड़ी हुई। सामने वक़ार महल खड़ा मुस्कुरा रहा था। इस की मुस्कुराहट हसरत आलूदा थी। जफ़ी ने महसूस किया जैसे महल सब कुछ जानता हो। ठक ठक खिच। ड़ी ठक ठक। खिचड़ी महल की दीवारें चला रही थीं। नहीं नहीं। यासमीन बोल। भूलना काफ़ी नहीं। तुम्हें इस दाग़ को अपने दामन से धोना होगा। ठक ठक ठक ठक&. टूटते हुए महल की आवाज़ें जफ़ी के कमरे में गूंज रही थीं। टुक-टुक टुक-टुक&. एक लर्ज़िश उस के अंदर रींग रही थी। नहीं नहीं। जफ़ी घबरा कर बोली। तुम एक माडर्न गर्ल हो। नहीं नहीं यासमीन चलाई। तुम वक़ार महल के साय में पल कर जवान हुई हो। ठक ठक ठक ठक&. टूटता हुआ महल कराह रहा था। दफ़्फ़ातन उस का मुँह सुर्ख़ हो गया। हसनी&.! उसने यूं आवाज़ दी जैसे डूबती हुई कश्ती में से कोई मदद के लिए चला रहा हो। हसनी&.! जफ़ी और यासमीन दोनों शश्दर रह गईं। ये आवाज़ किस ने दी? किस ने? हसनी&.! वो फिर चलाई। वो आवाज़ मुँह से नहीं बल्कि जिस्म से निकल रही थी