मीना बाज़ार

Shayari By

दो आशिक़ों में तवाज़ुन बरक़रार रखना, जब के दोनों आई सी एस के अफ़राद हों, बड़ा मुश्किल काम है। मगर रम्भा बड़ी ख़ुश-उस्लूबी से काम को सर-अंजाम देती थी। उसके नए आशिक़ों की खेप उस हिल स्टेशन में पैदा हो गई थी। क्योंकि रम्भा बेहद ख़ूबसूरत थी। उसका प्यारा-प्यारा चेहरा किसी आर्ट मैगज़ीन के सर-ए-वर्क़ की तरह जाज़िब-ए-नज़र था। उसकी सुनहरी जिल्द नायलॉन की सत्ह की तरह बेदाग़ और मुलाइम थी। उसका नौजवान जिस्म नए मॉडल की गाड़ी की तरह स्प्रिंगदार नज़र आता था।
दूसरी लड़कियों को देखकर ये एहसास होता था कि उन्हें उनके माँ बाप ने शायद औंधे सीधे ढंग से पाला है। लेकिन रम्भा किसी मॉर्डन कारख़ाने की ढाली हुई मालूम होती थी, उसके जिस्म के ख़ुतूत, उसके होंट, कान, नाक आँखें, नट बोल्ट, स्प्रिंग कमानियाँ, अपनी जगह पर इस क़दर क़ायम और सही और दुरुस्त मालूम होती थीं कि जी चाहता था रम्भा से उसके मेकर बल्कि मेन्यूफ़ेक्चरर का नाम पूछ के उसे ग्यारह हज़ार ऐसी लड़कियाँ सपलाई करने का फ़ौरन ठेका दे दिया जाये।

जमुना, रम्भा की तरह हसीन तो ना थी। लेकिन अपना बूटा सा क़द लिए इस तरह हौले-हौले चलती थी जैसे झील की सतह पर हल्की-हल्की लहरें एक दूसरे से अठखेलियाँ करती जा रही हों उसके जिस्म के मुख़्तलिफ़ हिस्से आपस में मिल कर एक ऐसा हसीन तमूज पैदा करते थे जो अपनी फ़ितरत में किसी वाइलिन के नग़मे से मुशाबह था। स्टेशन की लोअर माल रोड पर जब वो चहल-क़दमी के लियें निकलती थी तो लोग उसके जिस्म के ख़्वाबीदा फ़ित्नों को देख-देख कर मबहूत हो जाते थे।
ज़ुबैदा की आवाज़ बड़ी दिलकश थी और किसी हाई-फ़ाई रेडियो से मिलती जुलती थी। उसे देखकर किसी औरत का नहीं, किसी ग्रामोफोन कंपनी के रिकार्ड का ख़्याल आता था। वो हर वक़्त मुस्कुराती रहती, क्योंकि उस की साँवली रंगत पर उसके सफ़ेद दाँत बेहद भले मालूम होते थे। और जब वो कभी क़हक़हा मार कर हँसती तो ऐसा मालूम होता गोया नाज़ुक कांच के कई शेम्पेन गिलास एक साथ एक दूसरे से टकरा गए हों। ऐसी औरत के साथ क्लब में बैठ कर लोगों को बे पिए ही नशा हो जाता है। [...]

मीना बाज़ार

Shayari By

दो आशिक़ों में तवाज़ुन बरक़रार रखना, जब के दोनों आई सी एस के अफ़राद हों, बड़ा मुश्किल काम है। मगर रम्भा बड़ी ख़ुश-उस्लूबी से काम को सर-अंजाम देती थी। उसके नए आशिक़ों की खेप उस हिल स्टेशन में पैदा हो गई थी। क्योंकि रम्भा बेहद ख़ूबसूरत थी। उसका प्यारा-प्यारा चेहरा किसी आर्ट मैगज़ीन के सर-ए-वर्क़ की तरह जाज़िब-ए-नज़र था। उसकी सुनहरी जिल्द नायलॉन की सत्ह की तरह बेदाग़ और मुलाइम थी। उसका नौजवान जिस्म नए मॉडल की गाड़ी की तरह स्प्रिंगदार नज़र आता था।
दूसरी लड़कियों को देखकर ये एहसास होता था कि उन्हें उनके माँ बाप ने शायद औंधे सीधे ढंग से पाला है। लेकिन रम्भा किसी मॉर्डन कारख़ाने की ढाली हुई मालूम होती थी, उसके जिस्म के ख़ुतूत, उसके होंट, कान, नाक आँखें, नट बोल्ट, स्प्रिंग कमानियाँ, अपनी जगह पर इस क़दर क़ायम और सही और दुरुस्त मालूम होती थीं कि जी चाहता था रम्भा से उसके मेकर बल्कि मेन्यूफ़ेक्चरर का नाम पूछ के उसे ग्यारह हज़ार ऐसी लड़कियाँ सपलाई करने का फ़ौरन ठेका दे दिया जाये।

जमुना, रम्भा की तरह हसीन तो ना थी। लेकिन अपना बूटा सा क़द लिए इस तरह हौले-हौले चलती थी जैसे झील की सतह पर हल्की-हल्की लहरें एक दूसरे से अठखेलियाँ करती जा रही हों उसके जिस्म के मुख़्तलिफ़ हिस्से आपस में मिल कर एक ऐसा हसीन तमूज पैदा करते थे जो अपनी फ़ितरत में किसी वाइलिन के नग़मे से मुशाबह था। स्टेशन की लोअर माल रोड पर जब वो चहल-क़दमी के लियें निकलती थी तो लोग उसके जिस्म के ख़्वाबीदा फ़ित्नों को देख-देख कर मबहूत हो जाते थे।
ज़ुबैदा की आवाज़ बड़ी दिलकश थी और किसी हाई-फ़ाई रेडियो से मिलती जुलती थी। उसे देखकर किसी औरत का नहीं, किसी ग्रामोफोन कंपनी के रिकार्ड का ख़्याल आता था। वो हर वक़्त मुस्कुराती रहती, क्योंकि उस की साँवली रंगत पर उसके सफ़ेद दाँत बेहद भले मालूम होते थे। और जब वो कभी क़हक़हा मार कर हँसती तो ऐसा मालूम होता गोया नाज़ुक कांच के कई शेम्पेन गिलास एक साथ एक दूसरे से टकरा गए हों। ऐसी औरत के साथ क्लब में बैठ कर लोगों को बे पिए ही नशा हो जाता है। [...]

अंधेर

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नागपंचमी आई, साठे के ज़िंदा-दिल नौजवानों ने ख़ुश रंग़ जांघिये बनवाए, अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदाएँ बुलंद हुईं क़ुर्ब-ओ-जवार के ज़ोर-आज़मा इखट्टे हुए और अखाड़े पर तंबोलियों ने अपनी दुकानें सजाईं क्योंकी आज ज़ोर-आज़माई और दोस्ताना मुक़ाबले का दिन है औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं।
साठे और पाठे दो मुल्हिक़ मौज़ा थे, दोनों गीगा के किनारे, ज़राअत में ज़्यादा मशक़्क़त नहीं करनी पड़ती थी इसलिए आपस में फ़ौजदारियों की गर्म बाज़ारी थी अज़ल से उनके दरमियान रक़ाबत चली आती थी, साठे वालों को ये ज़ोअम था कि उन्होंने पाठे वालों को कभी सर न उठाने दिया, अली हज़ा पाठे वाले अपने रक़ीबों को ज़क देना ही ज़िंदगी का मुक़द्दम काम समझते थे उनकी तारीख़ फ़ुतूहात की रिवायतों से भरी हुई थी, पाठे के चरवाहे गीत गाते हुए चलते थे।

साठे वाले क़ाएर सगरे पाठे वाले हैं सरदार
और साठे के धोबी गाते [...]

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