वो लम्हा भर की बारिशें फिर याद आती है,,तेरे शहर की बाते मुझे बेवफ़ा यूँ बताती है...उसके बाद बहुत आए मौसम मेरी छत पे,,भीगाने को जिस्म था रूह ना सूख पाती है...तू है के मौर बन जाता है जब अब्र बरसे,,मेरे आशियाने में छत की आह टपक जाती है...इतना भी शोंक ना था के रहे बरसते आसमां,,मेहताब इश्क़ में जागके काटी रातें ही सताती है...!!