आए हैं घर मिरा सजाने दर्द कुछ नए और कुछ पुराने दर्द ज़िक्र-ए-जानाँ के बाग़ से गुज़रे ज़ख़्म महके हुए सुहाने दर्द ख़ौफ़ उतना ख़ुशी का था हम को बन गए ज़ीस्त के बहाने दर्द दर्द कुछ और दे के लौटे हैं आए थे हम से जो बटाने दर्द कब कोई चाँदनी में दे आवाज़ कब उठे दिल में फिर न जाने दर्द