आए थे तेरे शहर में कितनी लगन से हम मंसूब हो सके न तिरी अंजुमन से हम बेज़ार आ न जाएँ ग़म-ए-जान-ओ-तन से हम अपने वतन में रह के भी हैं बे-वतन से हम यूँ बे-रुख़ी से पेश न आ अहल-ए-दिल के साथ उठ कर चले न जाएँ तिरी अंजुमन से हम ये सर-कशी जुनूँ नहीं पिंदार-ए-इश्क़ है गुज़रे हैं दार से भी उसी बाँकपन से हम मेहर-ओ-मह-ओ-नुजूम की मानिंद रोज़-ओ-शब हर जौर-ए-आसमाँ पे रहे ख़ंदा-ज़न से हम मिलते हैं रोज़ दस्त-ए-सबा से पयाम-ए-गुल ज़िंदाँ में भी क़रीब हैं अहल-ए-चमन से हम 'शाइर' अदब के मोहतसिबों को ख़बर नहीं क्या काम ले रहे हैं तग़ज़्ज़ुल के फ़न से हम