आबरू की किसे ज़रूरत है जान बच जाए तो ग़नीमत है देर तक साथ दे नहीं सकता झूट की बस यही हक़ीक़त है बे-ज़रूरत भी कर लिया सज्दा ये इबादत बड़ी इबादत है मैं मोहब्बत तुझे नहीं करता तू फ़क़त रूह की ज़रूरत है दश्त वीराँ रहे अगर तो फिर दावा-ए-आशिक़ी पे लअ'नत है कोई शिकवा-गिला नहीं बाक़ी अब इसी बात की शिकायत है