आधी रात के सपने शायद झूटे थे या फिर पहली बार सितारे टूटे थे जिस दिन घर से भाग के शहर में पहुँची थी भाग भरी के भाग उसी दिन फूटे थे मज़हब की बुनियाद पे क्या तक़्सीम हुई हम-सायों ने हम-साए ही लौटे थे शोख़-नज़र की चुटकी ने नुक़सान किया हाथों से चाय के बर्तन छूटे थे ओढ़ के फिरती थी जो 'नैनाँ' सारी रात इस रेशम की शाल पे याद के बूटे थे