आदमी और दर्द से ना-आश्ना मुमकिन नहीं अक्स से ख़ाली हो कोई आईना मुमकिन नहीं आदमी इंसान-ए-कामिल बन तो सकता है मगर ज़िंदगी भर रह सके वो पारसा मुमकिन नहीं दो किनारे जैसे दरिया के नहीं मिलते कभी हम से इक़दाम-ए-जफ़ा उन से वफ़ा! मुमकिन नहीं कार-फ़रमा जब रहे बर्क़-ए-नज़र आठों पहर शहर भर में हो न कोई हादसा! मुमकिन नहीं किस क़दर हिम्मत-शिकन है गुमरही का ये जवाज़ रहबरी अज़-इब्तिदा ता-इंतिहा मुमकिन नहीं शीशा कोई चूर हो जाए तो फिर किस काम का मिट के हो आबाद ऐवान-ए-वफ़ा मुमकिन नहीं आप पत्थर को निचोड़ें इस से क्या हासिल 'मतीन' तंग-दिल इंसान हो हक़-आश्ना मुमकिन नहीं