आदमी भी आदमी का राज़दाँ होता नहीं बे ख़बर रहता है लेकिन बद-गुमाँ होता नहीं ज़हमतें यकसाँ मकान-ओ-ला-मकाँ से क्या हुआ क्या ख़लाओं से परे भी आसमाँ होता नहीं हम कि ख़ुद रह-रव भी हैं रहबर भी हैं रहज़न भी हैं वाँ पहुँचते हैं जहाँ पर कारवाँ होता नहीं बढ़ गए इख़्वान-ए-यूसुफ़ से ये इख़्वानुस्सफ़ा फेंक देते हैं वहाँ जिस जा कुआँ होता नहीं है जराहत-आफ़रीं दरमान-ए-दर्द-ए-ला-दवा शो'ला करता है शरर-बारी धुआँ होता नहीं हुस्न-ए-बे-पर्दा हरीफ़-ए-ताब-ए-नज़्ज़ारा नहीं हो नज़र के सामने लेकिन अयाँ होता नहीं मर्ग-ए-बे-हंगाम अपने शहर का मामूल है लोग मर जाते हैं कोई नौहा-ख़्वाँ होता नहीं जो भी हो जिस हाल में है ज़िंदगी उस को अज़ीज़ जान-ए-जाँ कहने से कुछ जान-ए-जहाँ होता नहीं बे-अदा-कारी भी ख़ामोशी से मर जाते हैं लोग याँ पे कोई खेल मिर्ज़ा साहेबाँ होता नहीं