आग आँगन में ख़ुद लगा दी है जिस ने इंसाफ़ की निदा दी है भाई दो बट गए ज़मीनों में घर में दीवार इक बना दी है तुम ही इबलीस के सिपाही हो तुम ने तक़्सीम को हवा दी है इक सदा उस ने अन-सुनी कर दी बारहा हम ने कब सदा दी है रौशनी हिज्र में अज़िय्यत थी जब भी शम्अ' जली बुझा दी है झूट की आर-पार लज़्ज़त ने सच की तासीर ही भुला दी है दोस्तो कश्तियाँ जलानी थीं तुम ने तारीख़ ही जला दी है लोग सब मुंतशिर न हो जाएँ आज फिर इश्क़ ने सदा दी है हारता क्यों 'ख़लील' माँ ने जब चूम कर कल जबीं दुआ दी है