आग चूल्हे की बुझी जाती है चाँदनी है कि खिली जाती है जिस क़दर नीचे उतरता हूँ मैं झील भी गहरी हुई जाती है गर्द उठी है जो मिरी ठोकर से एक दीवार बनी जाती है पहरे होंटों पे बिठाने वाले बात आँखों से भी की जाती है लोग साहिल पे खड़े देखते हैं नाव काग़ज़ की बही जाती है