आग देखूँ कभी जलता हुआ बिस्तर देखूँ रात आए तो यहीं ख़्वाब-ए-मुकर्रर देखूँ एक बेचैन समुंदर है मिरे जिस्म में क़ैद टूट जाए जो ये दीवार तो मंज़र देखूँ रात गहरी है बहुत राज़ न देगी अपना मैं तो सूरज भी नहीं हूँ कि उतर कर देखूँ ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन ये भी हिम्मत नहीं अब झाँक के अंदर देखूँ कोई इस दौर में एलान-ए-नबूवत करता आरज़ू थी कि ख़ुदा-साज़ पयम्बर देखूँ एक सन्नाटा हूँ पत्थर के जिगर में पैवस्त मैं कोई बुत तो नहीं हूँ कि निकल कर देखूँ यूँ नशे से कभी दो चार तिरा ग़म हो कि मैं बंद आँखों से खुली आँख का मंज़र देखूँ ओढ़ कर ख़ाक 'मुजीबी' सुनूँ दुश्नाम-ए-जहाँ ये तमाशा ही किसी रोज़ मियाँ कर देखूँ