आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को मैं जो देता हूँ हवा रूह की चिंगारी को वर्ना ये लोग कहाँ अपनी हदों में रहते मैं ने माक़ूल किया हाशिया-बर्दारी को ये परिंदे हैं कि दरवेश हैं ज़िंदानों के कुछ समझते ही नहीं अम्र-ए-गिरफ़्तारी को अब हमें ज़िंदगी करने में सुहूलत दी जाए खींच लाए हैं यहाँ तक तो गिराँ-बारी को एक तूफ़ान-ए-बला-ख़ेज़ ने मंज़र बदला पेड़ तय्यार हुए रस्म-ए-निगूँ-सारी को उस ने वो ज़हर हवाओं में मिलाया है कि अब कोंपलें सर न उठाएँगी नुमूदारी को कौन खींचेगा मिरे जिस्म की ज़ंजीर 'आज़र' कौन आसान करेगा मिरी दुश्वारी को