आगही मौत से कम भी नहीं रुस्वा भी नहीं देखता हूँ वो तमाशा जो तमाशा भी नहीं जल्वा मुश्ताक़ भी हूँ जल्वा तक़ाज़ा भी नहीं हुस्न मजरूह-ए-नज़र हो ये गवारा भी नहीं ज़िंदगी हम को बहुत देर में रास आई है दर्द कम भी नहीं इम्कान-ए-मुदावा भी नहीं राह पाता है ज़माना मिरी गुमराही से मंज़िलें क्या मिरे आगे कोई रस्ता भी नहीं बाज़ वक़्तों के ख़यालात भी क्या होते हैं दूर तक जैसे मैं तन्हा भी हूँ तन्हा भी नहीं साबिक़ा ऐसे सितमगर से है दिन रात अपना या'नी क़ातिल भी नहीं वो तो मसीहा भी नहीं रौशनी मिलती है दुनिया को उन्ही लोगों से जिन के हिस्से में चराग़ों का उजाला भी नहीं अपने ही शहर में अब अपने शनासा कम हैं दश्त-ए-ग़ुर्बत में अजब क्या जो शनासा भी नहीं हर तबाही का सबब है दिल-ए-मुज़्तर तन्हा ग़म हज़ार आफ़त-ए-जाँ है मगर इतना भी नहीं हक़ रिफ़ाक़त का अदा कर दिया शायद उस ने दिल गुलिस्ताँ भी नहीं दर्द का सहरा भी नहीं मशवरे देते हैं अहबाब मुझे 'शौक़' ऐसे जैसे अब तक मुझे अंदाज़ा ख़ुद अपना भी नहीं