आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ पीछे पीछे अपनी ख़ैर मनाता हूँ पत्थर की सूरत बे-हिस हो जाता हूँ कैसी कैसी चोटें सहता रहता हूँ आख़िर अब तक क्यूँ न तुम्हें आया मैं नज़र जाने कहाँ कहाँ तो देखा जाता हूँ साँसों के आने जाने से लगता है इक पल जीता हूँ तो इक पल मरता हूँ दरिया बालू मोरम ढो कर लाता है मैं उस का सब माल उड़ा ले आता हूँ अब तो मैं हाथों में पत्थर ले कर भी आईने का सामना करते डरता हूँ