आग़ोश-ए-एहतियात में रख लूँ जिगर कहीं डरता हूँ ले उड़े न किसी की नज़र कहीं ग़ुर्बत में अजनबी का भी होता है घर कहीं दिन-भर कहीं गुज़ारिए या रात-भर कहीं अग़्यार हूँ कहीं बुत-ए-शोरीदा-सर कहीं सब कुछ हो आह में तो हो अपनी असर कहीं यूँ उफ़ न बाग़-ए-दहर में बर्बादी हो कोई बुलबुल का आशियाँ है कहीं बाल-ओ-पर कहीं मैं आज अपनी आह का करता हूँ इम्तिहाँ हों आसमाँ ज़मीन न ज़ेर-ओ-ज़बर कहीं क़ैद-ए-क़फ़स में हसरत-ए-परवाज़ क्यूँ रहे सय्याद जो उड़ा दे मिरे बाल-ओ-पर कहीं रहती है उन की याद मिरे दिल में हर घड़ी 'औज' उन के दिल में काश हो मेरा भी घर कहीं