आह भरते हुए निकलते हैं अश्क जलते हुए निकलते हैं ख़ौफ़ फैला है इतना बस्ती में लोग डरते हुए निकलते हैं हम क़लंदर मिज़ाज गलियों में रक़्स करते हुए निकलते हैं शाम होते ही तेरी यादों के साँप डसते हुए निकलते हैं दिल की धड़कन बदलने लगती है जब वो हँसते हुए निकलते हैं घर से नाद-ए-अली का हम 'शाफ़ी' विर्द करते हुए निकलते हैं