आह निकले न अब सदा निकले हाथ उट्ठे तो बस दुआ निकले अश्क आँखों की है वफ़ादारी जो न छलके तो बेवफ़ा निकले तुम न मजनूँ हो न कोई लैला इश्क़-ए-उम्र-ए-दराज़ क्या निकले आँख डरती है अब ख़यालों से ख़्वाब कोई न फिर बुरा निकले रोज़ पत्थर तराशता ही रहा शायद उन में कभी सदा निकले इस लिए चुप हूँ ख़ाकसारी में क्या पता घर का ही दिया निकले ख़ाक जब भी उड़े गली में तिरे मैं जलूँ और बस धुआँ निकले डूबने को सफ़ीना है मेरा काश कोई तो अब दुआ निकले या ख़ुदा तंग आ गया हूँ मैं दर्द निकले न कुछ दवा निकले 'प्यासा' ना-वाक़िफ़ों की बस्ती में ढूँढता हूँ कोई सगा निकले