आह शर्मिंदा-ए-असर न हुई कोई तदबीर कारगर न हुई मुल्तफ़ित आप की नज़र न हुई शाख़-ए-उम्मीद बारवर न हुई हम ने दिन जिस जगह गुज़ार दिया रात अपनी वहाँ बसर न हुई ऐब औरों के ढूँडते हैं हम अपने अफ़आ'ल पर नज़र न हुई क़िस्सा-ए-ग़म अगर न था कोताह ज़िंदगानी भी मुख़्तसर न हुई रह गई दिल में दाग़-ए-दिल बन कर वो तमन्ना जो बारवर न हुई दाद दो मेरे ज़ब्त-ए-ग़म की मुझे दिल भी रोया तो चश्म तर न हुई मेरे तख़्ईल की बुलंदी भी कभी मोहताज-ए-बाल-ओ-पर न हुई ख़ूबियाँ देखिए मुक़द्दर की हो गई शाम तो सहर न हुई उन से मिलने की आरज़ू पूरी बात मुमकिन सही मगर न हुई दिल पे गुज़रे वो हादसे 'शंकर' इक घड़ी चैन से बसर न हुई