आहिस्ता बोलिएगा तमाशा खड़ा न हो बैरून-ए-ख़्वाब कोई हमें सुन रहा न हो दीवारें उठ गई न हों दश्त-ए-जुनून में रम-ख़ूर्दा वो ग़ज़ाल कहीं गुम-शुदा न हो रख़्त-ए-सफ़र में बाँध लें पुर-शोर कुछ भँवर दरिया है पुर-सुकून सफ़र बे-मज़ा न हो यूँ तो वो एक आम सा पत्थर है मील का लेकिन वहाँ से आगे अगर रास्ता न हो मस्जिद पुकारती रही हय्या-अलल-फ़लाह जैसे हमारा अपना कोई फ़ल्सफ़ा न हो हम काट देंगे उम्र की ज़ंजीर एक दिन हम-ज़ाद कर्ब-ए-दीद से शायद रिहा न हो इक चाँद मुझ को ताकता रहता है इन दिनों जैसे सिवाए मेरे कोई आईना न हो हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम 'साबिर' वो दिल में और ही कुछ सोचता न हो