आहों का शीशा दर्द का पत्थर लिए फिरा मैं बज़्म में अजीब सा मंज़र लिए फिरा हर इक क़दम पे क़त्ल का ख़तरा था दोस्तो मैं अपनी आस्तीन में ख़ंजर लिए फिरा लोगों को रास आई थी आख़िर हवस की धूप बे-वज्ह क्यों मैं प्यार की चादर लिए फिरा हर पल मिरी हयात का था इक पहाड़ सा अपनी सदी के बोझ को सर पर लिए फिरा तख़्लीक़-ए-नौ का जज़्बा-ए-कामिल था अपने साथ मैं इक निगार-ख़ाना-ए-आज़र लिए फिरा 'जामी' हर एक शख़्स था यूँ तिश्ना-लब कि मैं शहरों में आगही का समुंदर लिए फिरा