आईना-ए-वहशत को जिला जिस से मिली है वो गर्द रह-ए-तर्क-ए-मरासिम से उठी है सदियों के तसलसुल में कहीं गर्दिश-ए-दौराँ पहले भी कहीं तुझ से मुलाक़ात हुई है ऐ कर्ब-ओ-बला ख़ुश हो नई नस्ल ने अब के ख़ुद अपने लहू से तिरी तारीख़ लिखी है उस कज-कुलह-ए-इश्क़ को ऐ मश्क़-ए-सितम देख सर तन पे नहीं फिर भी वही सर्व-क़दी है किस राह से तुझ तक हो रसाई कि हर इक सम्त दुनिया किसी दीवार के मानिंद खड़ी है ज़िंदाँ की फ़सीलें हों कि मक़्तल की फ़ज़ाएँ रफ़्तार-ए-जुनूँ भी कहीं रोके से रुकी है जिस रूप में जब चाहे जिसे ढाल दे 'उम्मीद' दुनिया भी अजब कार-गह-ए-कूज़ा-गरी है