आज बस्ती में तिरी सानेहा ऐसा देखा हम ने हर आँख में बिफरा हुआ दरिया देखा जाने ता'बीर हो अब कैसी ख़ुदा ख़ैर करे रात फिर ख़्वाब में खिलता हुआ ग़ुंचा देखा उस ने पूछा भी नहीं राह की क्यों धूल हुए उम्र भी बैठ के जिस शख़्स का रस्ता देखा जो पहाड़ों से चले ज़ीस्त का सामाँ ले कर हम ने हर झरने में इक नूर का धारा देखा आइना कहने लगा कान में चुपके चुपके बे-अमल शख़्स कोई और न तुझ सा देखा फूल शाख़ों पे खिले आप से और फिर न मिले मौसम-ए-हिज्र न कुछ तू ने भी सोचा देखा जाने क्यूँ-कर वो परेशान सा रहता है 'रज़ा' जब भी देखा है किसी सोच में डूबा देखा