आज भर दे उसी मय से मिरा जाम ऐ साक़ी अक़्ल जिस मय को समझती है हराम ऐ साक़ी तू बदल दे ये मिरी ज़ीस्त के शाम और सहर सुब्ह बे-नूर है बे-कैफ़ है शाम ऐ साक़ी मैं वो मय-कश नहीं जो बैठ के तन्हा पी लूँ कितने मय-ख़्वारों का लाया हूँ सलाम ऐ साक़ी अपनी ही तिश्नगी-ए-शौक़ बुझाना तो नहीं माँगता हूँ मैं तिरी बख़्शिश-ए-आम ऐ साक़ी नाम-लेवा तिरे बैठे हैं निगूँ जाम किए बज़्म-ए-मय-ख़ाना का बदला जो निज़ाम ऐ साक़ी तिश्ना-काम और तही-जाम रहेंगे लेकिन ग़ैर के हाथ से पीना है हराम ऐ साक़ी