आज भी हाथ पे है तेरे पसीने की तरी या'नी है आज भी शाख़-ए-शजर-ए-दर्द हरी पास-ए-दामाँ न सही पास-ए-गरेबाँ ही सही तुझ पे लाज़िम नहीं ऐ दस्त-ए-जुनूँ जामा-दरी मैं कि दुनिया-ए-हवस में भी सर-अफ़राज़ रहा काम आ ही गई आख़िर मिरी आशुफ़्ता-सरी दिल की बस्ती से कभी यूँ न गुज़रती थी सबा अब न पैग़ाम्बरी है न कोई नामा-बरी हम ने भी छोड़ दिया मसलक-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा वो भी अब भूल गए शेवा-ए-बेदाद-गरी रात का कर्ब समेटे हुए अपने दिल में झिलमिलाता है कहीं दूर चराग़-ए-सहरी मैं ने किस दिल से शब-ए-ग़म की सहर की है 'अरीब' याद आएगी ज़माने को मिरी बे-जिगरी