आँख के कुंज में इक दश्त-ए-तमन्ना ले कर अजनबी देस को निकले दिल-ए-तन्हा ले कर देख तो खोल के तारीक मकाँ की खिड़की हम तिरे शहर में आए हैं उजाला ले कर हम भी पहुँचे थे गुलिस्ताँ में सुकूँ की ख़ातिर आ गए ज़ेहन में तपता हुआ सहरा ले कर अब निगाहों की जराहत को लिए सोचते हैं क्यूँ गए बज़्म में हम ज़ौक़-ए-तमाशा ले कर कब से फ़रियाद-ब-लब आब-तलब है शीरीं आज फ़रहाद भी निकला नहीं तेशा ले कर रू-सियह तेरे बने चश्म-ओ-चराग़ ज़िंदाँ घूम अब शहर में तू चेहरा-ए-ज़ेबा ले कर इस चका-चौंद में अब मुझ को दिखाई क्या दे आ गए आप तो इक नूर का दरिया ले कर जब भी हालात के शो'लों में घिरा हूँ 'बेताब' आ ही पहुँचा है कोई फूल सा चेहरा ले कर