आँख से आँसू टपकता जाए है हर मुसाफ़िर सर पटकता जाए है नाज़ुकी क्या कहिए नाज़ुक फूल की बार-ए-शबनम से लचकता जाए है ज़ख़्म-ए-दिल हम ने छुपाया तो मगर फूल की सूरत महकता जाए है कह रहा हूँ मैं तो अपनी दास्ताँ क्यों तुम्हारा दिल धड़कता जाए है जब बुझाना चाहता हूँ ग़म की आग और भी शो'ला भड़कता जाए है लब पे नासेह के नसीहत है मगर हाथ में साग़र छलकता जाए है दीदा-ए-मक़्तूल में अब किस लिए अक्स क़ातिल का झलकता जाए है राह में पहले भटकता था 'अज़ीज़' अब सर-ए-मंज़िल भटकता जाए है