आँख थी सूजी हुई और रात भर सोया न था इस तरह वो टूट कर शायद कभी रोया न था उन के शौक़-ए-दीद में था इस क़दर खोया हुआ मैं भरी महफ़िल में था ऐसा कि मैं गोया न था इम्तिहाँ ज़ौक़-ए-सफ़र का था तो सूरज सर पे था धूप थी दीवार थी लेकिन कहीं साया न था वो बड़ा था फिर भी वो इस क़दर बे-फ़ैज़ था उस घनेरे पेड़ में जैसे कोई साया न था शाहराह पर ख़ून में इक लाश थी लुथड़ी हुइ आए दिन का हादसा था इस लिए चर्चा न था हर निगह प्यासी थी लेकिन वक़्त की तहवील में इक सराब-आसा ज़मीं थी दूर तक दरिया न था