आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट अश्क फिरते हैं इन में जैसे रहट मैं न समझा था ख़ूब तेरे तईं है तू मुतरिब पिसर बड़ा नट-खट पी गए हम सुराही-ए-मय को दस्त-ए-साक़ी से लेते ही ग़ट-ग़ट तेरा तीर-ए-निगह है वो काफ़िर मुँह से इक दम जुदा तू कर घूंगट समझे थे मार आप देखी थी आईने में किसी की ज़ुल्फ़ की लट जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती तौसन-ए-उम्र की है इक सरपट 'मुसहफ़ी' उस के रुख़ पे ख़त आया गए वे दिन गई वो रुत ही पलट जम के बैठे न था जहाँ कोई रात दिन अब रहे है वाँ जमघट