आख़िरी अब ख़त्म होने को है बाब-ए-ज़िंदगी लो मुकम्मल हो गई 'ज़ेबी' किताब-ए-ज़िंदगी लिख रही हूँ नाम तेरे इंतिसाब-ए-ज़िंदगी सिर्फ़ तू है सिर्फ़ तू है इंतिख़ाब-ए-ज़िंदगी राहतों के और ग़मों के सारे मौसम तुझ से हैं तू जमाल-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न तू आफ़्ताब-ए-ज़िंदगी अपने अपने हर अमल का गोश्वारा साथ है अब तुम्हारे रू-ब-रू होगा हिसाब-ए-ज़िंदगी अपनी अपनी उलझनों में अब हैं सब उलझे हुए अब नहीं बाक़ी कहीं आँखों में ताब-ए-ज़िंदगी है अमल ही से मयस्सर राहत-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर बा-अमल है जो वही है कामयाब-ए-ज़िंदगी अब न इख़्लास-ओ-मुरव्वत है न लोगों में वफ़ा कसरत-ए-ज़र ने बदल डाला निसाब-ए-ज़िंदगी