आख़िरी हिचकी पे है नश्शे की साग़र जागा प्यास को नींद जब आई तो समुंदर जागा रात भी दिन की तरह मेरी परेशाँ गुज़री मैं न जागा तो मिरे ख़्वाब का पैकर जागा एक आहट सी अचानक हुई दिल को महसूस किसी देरीना तमन्ना का मुक़द्दर जागा सुब्ह होते ही ख़ुदा जाने चला जाए किधर रात-भर शाख़ पे इस ग़म में गुल-ए-तर जागा थरथराने लगे क्यूँ शीश-महल आप से आप क्या किसी टूटे मकाँ का कोई पत्थर जागा लौट आए वही आवारा-ओ-गुम-गश्ता ख़याल आँख खुलते ही नज़ारों का समुंदर जागा छोड़ आया था जो मैं पिछले जनम में 'साइब' ज़ेहन में आज उन अरमानों का लश्कर जागा