आँखों का क़ुसूर कुछ नहीं है जिस्मों से ग़िलाफ़ हट गए हैं जो बाल की खाल उतारते थे सहराओं में घास काटते हैं हम लोग तो हो गए हैं पागल ख़्वाबों की किताब लिख रहे हैं इंसान में क्या भरा हुआ है होंटों से दिमाग़ तक सिले हैं ये कैसे ज़बान से अदा हों ख़ाके जो दिलों में अन-कहे हैं