आँखों में हया रख के भी बेबाक बहुत थे थे तेरे गुनहगार मगर पाक बहुत थे मैं अपना समझती रही अर्बाब-ए-वफ़ा को वो ग़ैर से मिलते रहे चालाक बहुत थे ये भी कोई उल्फ़त का तरीक़ा है जहाँ में रह रह के जले हिज्र में हम ख़ाक बहुत थे मासूम को फिर मार दिया कोख में माँ की क़िस्से जो सुने हम ने वो ग़मनाक बहुत थे हम लोग 'सबीं' नर्म-मिज़ाजी के पयम्बर जो लोग मिले हम से वो सफ़्फ़ाक बहुत थे