आँखों में ज़िंदगी के तमाशे उछाल कर ऐ ग़ुर्बत-ए-निगाह न इतने सवाल कर रहने दे आसमान को इक पर्दा-ए-ख़्याल लेकिन ज़मीं को साया-ए-जन्नत बहाल कर कोई तलब नहीं है तिरी बारगाह से हम बे-ख़याल आए हैं इतना ख़याल कर आराम-ए-जाँ हैं हम को यही सरसराहटें पछताने वाले हम नहीं साँपों को पाल कर आ रख दे हाथ सीना-ए-आतिश-मिज़ाज पर कब तक रखेंगे तेरी अमानत सँभाल कर वो बे-ज़बाँ ग़रीब न खा जाए कोई तीर बे-चैन हो गया हूँ कबूतर उछाल कर 'एजाज़' अब के सुर्ख़ गुलाबों से काम ले तेशे की आस छोड़ दे पत्थर को ला'ल कर