आँखों से कभी कूचा-ए-जानाँ नहीं देखा By Ghazal << अब तक तो यही पता नहीं है अगर मस्जिद से वाइज़ आ रहे... >> आँखों से कभी कूचा-ए-जानाँ नहीं देखा बुलबुल हूँ मगर सेहन-ए-गुलिस्ताँ नहीं देखा कहते हैं दुपट्टे से छुपा कर रुख़-ए-रौशन देखो ये चराग़-ए-तह-ए-दामाँ नहीं देखा Share on: