आलम-ए-सज्दा है मेरा एक आलम नूर का सज्दा-गह पर मेरी धोका हो रहा है तूर का एक आलम हम-नवा है साहिब-ए-मक़्दूर का साथ देता है कहाँ कोई किसी मजबूर का शिद्दत-ए-एहसास-ए-तन्हाई की हैं हमदर्दियाँ दर्द बढ़ जाता है अक्सर रात को रंजूर का तीर ने नापी हैं शायद ज़ख़्म की गहराइयाँ इल्म बेचारे को क्या है सदमा-ए-मस्तूर का शम्अ रौशन है कहाँ इस का पता चलता नहीं पर नज़र को है यक़ीं मौजूदगी-ए-नूर का हैं कभी नज़रें तमन्ना पर कभी उम्मीद पर या'नी हसरत-नाक आलम है दिल-ए-मजबूर का तुझ में और तेरे तसव्वुर में ज़रा सा फ़र्क़ है एक मंज़र पास का है एक मंज़र दूर का सरफ़राज़ी-ओ-नवाज़िश का सुना है सिर्फ़ नाम ऐ 'ज़की' उन से तो रिश्ता भी नहीं है दूर का