तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं शाइ'री ज़ीस्त के ज़ख़्मों की तलाफ़ी तो नहीं साया-ए-गुल में ज़रा देर जो सुसताए हैं साया-ए-दार से ये वा'दा-ख़िलाफ़ी तो नहीं अपनी दुनिया से मिली फ़ुर्सत-ए-यक-जस्त हमें आसमाँ के लिए इक जस्त ही काफ़ी तो नहीं किसी चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश न करो देख लो इस में कोई शो'बदा-बाफ़ी तो नहीं तिश्नगी हम को मिली तुम हुए सैराब तो क्या इन मुक़द्दर की सज़ाओं से मुआ'फ़ी तो नहीं देव-माला का धुँदलका हो कि ख़्वाबों की किरन आज की आईना-साज़ी की मुनाफ़ी तो नहीं ख़्वाब टकराओ हक़ीक़त से कि शो'ले निकलें इस अँधेरे में दिया एक ही काफ़ी तो नहीं