आँगन से ही ख़ुशी के वो लम्हे पलट गए सहरा-ए-दिल से बरसे बग़ैर अब्र छट गए रिश्तों का इक हुजूम था कहने को आस-पास जब वक़्त आ पड़ा तो तअ'ल्लुक़ सिमट गए इक सम्त तुम खड़े थे ज़माना था एक सम्त हम तुम से मिल गए तो ज़माने से कट गए रस्म-ओ-रह-ए-जहाँ का तो था दायरा वसीअ' अपनी हदों में आप ही हम लोग बट गए हमदर्दियों की भीड़ सहर से थी साथ साथ जब धूप सर पे आई तो साए सिमट गए बेदारियों के साथ था हंगामा-ए-हयात नींद आ गई तो सारे मसाइल निपट गए इस इंक़लाब-ए-दौर-ए-तरक़्क़ी के आफ़रीं मजमा' बड़ा हुआ है तो इंसान घट गए