आप की नज़र-ए-इनायत हो गई ज़िंदगी मरहून-ए-मिन्नत हो गई मिल गए दो दिल मोहब्बत हो गई बात बस इतनी क़यामत हो गई क्यों फ़ुज़ूँ-तर आज वहशत हो गई क्या किसी मंज़िल से क़ुर्बत हो गई आप हम पर मुल्तफ़ित क्या हो गए हम से दुनिया को अदावत हो गई हो गए क्या क्या फ़साने सर-बुलंद सर-निगूँ सारी हक़ीक़त हो गई आप ने ग़म दे दिया क्या कम दिया चार दिन जीने की सूरत हो गई नाम उन का जब ज़बाँ पर आ गया यूँ भी गोया इक इबादत हो गई हो गई जब भी जहालत मुक़्तदिर दर-ब-दर 'आमिर' फ़रासत हो गई