आरास्ता बज़्म-ए-ऐश हुई अब रिंद पिएँगे खुल खुल के झुकती है सुराही साग़र पर नग़्मे हैं फ़ज़ा में क़ुलक़ुल के आ तुझ को बना दूँ रश्क-ए-चमन मीज़ान-ए-मोहब्बत में तुल के आरिज़ को गुलों की रानाई बल ज़ुल्फ़ को बख़्शूँ सुम्बुल के गुलशन में बहार आए कि ख़िज़ाँ मुरझाए कली या फूल खिलें सय्याद तुझे क्या मतलब है तू अश्क गिने जा बुलबुल के हम अहल-ए-चमन की नज़रों में कुछ और ही मा'ना रखता है कलियों का चटक कर खिल जाना फूलों का निखरना धुल धुल के वो चैन तो शायद रिज़वाँ को जन्नत में क्या मिलता होगा जो मुझ को सुकूँ मिल जाता है साए में किसी की काकुल के उश्शाक़ के मरने जीने को इतनी ही लगावट काफ़ी है इक चोट सी तिरछी नज़रों के दो चार झकोले काकुल के कौन उस की फ़ज़ाओं में आ कर तख़रीब के शो'ले फूँक गया आख़िर ये वही तो गुलशन है रहते थे जहाँ हम मिल-जुल के इस दौर के पागल इंसानों नफ़रत की फ़रावानी कब तक गर आज नहीं तो कल तुम को रहना ही पड़ेगा मिल-जुल के गर हद से सिवा पी लोगे 'फ़लक' फिर होश कहाँ मय-ख़ाने का दो-चार ही क़तरे काफ़ी हैं पीछे न पढ़ो जाम-ए-मुल के