आरज़ू भी तो कर नहीं आती दिल में है होंठ पर नहीं आती वस्ल की रात के सिवा कोई शाम साथ ले कर सहर नहीं आती चली जाती है उन के घर मिरी नींद जा के फिर रात-भर नहीं आती वो मुझे कोसते हैं ओ तासीर अर्श से तू उतर नहीं आती पहले आती थी ऐ क़फ़स वालो अब सबा भी इधर नहीं आती चुप खड़े हैं वो पेश-ए-दावर-ए-हश्र भूले हैं बात कर नहीं आती कभी आ जाती थी मुक़द्दर पर अब हँसी होंठ पर नहीं आती अरे वाइज़ डरा न तू इतना क्या उसे दरगुज़र नहीं आती जब तक आए न कोई चाँद सी शक्ल शब-ए-मह मेरे घर नहीं आती हश्र के दिन भी दाग़ दामन में शर्म ऐ चश्म-ए-तर नहीं आती कमर इन की बहुत ही नाज़ुक है ज़ुल्फ़ भी ता-कमर नहीं आती ग़म हैं राह-ए-जुनूँ में अहल-ए-जुनूँ हैं मगर कुछ ख़बर नहीं आती आप को अपनी आरसी के सिवा अच्छी सूरत नज़र नहीं आती शर्म आती है दिल में सौ सौ बार तौबा लब पर मगर नहीं आती वा-ए-क़िस्मत कि बेकसी भी 'रियाज़' अब मिरी क़ब्र पर नहीं आती