आस दिल में तिरे आने की लगाए रक्खूँ इक दिया रोज़ सर-ए-शाम जलाए रक्खूँ छूटा जाए है मिरे हाथ से अब दामन-ए-ज़ब्त कब तक अश्कों को तबस्सुम में छुपाए रक्खूँ बस इसी तरह मिरी उम्र बसर हो जाए मैं तुझे याद रखूँ ख़ुद को भुलाए रक्खूँ इक न इक दिन तो ये सर तन से जुदा होना है क्यों न फिर सर को हथेली पे उठाए रक्खूँ मुझ को डर है कि न लग जाए तुझे मेरी नज़र अपनी आँखें तिरे चेहरे से हटाए रक्खूँ मुझ को मालूम है अंजाम दुआ का लेकिन इज़्न-ए-रहमत है कि मैं हाथ उठाए रक्खूँ ऐ 'अज़ीज़' आने लगे चारों तरफ़ से पत्थर शीशा-ए-दिल को कहाँ तक मैं बचाए रक्खूँ